आपकी बातः चुनावी रेवड़ियां कितनी जायज?

0 संजीव वर्मा
      देश में इन दिनों चुनावी रेवड़ियां राजनीतिक गलियारों में दिलचस्प चर्चा का विषय बनी हुई हैं । इसका सीधा संबंध राजनीतिक दलों से है, जो चुनाव के समय जनता से लुभावने वादे करते हैं और इन वादों के दम पर चुनाव जीतकर आते हैं। यह किसी दल विशेष तक सीमित नहीं है  बल्कि सभी दल कहीं न कहीं इसका इस्तेमाल करते हैं। यह सच है कि चुनावी रेवड़ियां अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए अच्छी नहीं है । लेकिन विशेष परिस्थितियों में इस तरह के कुछ वादे जरूरी भी होते हैं, लिहाजा सभी को एक ही लाठी से हॉकना उचित नहीं है। वैसे मुफ्त रेवड़ियों का मामला चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। सर्वोच्च अदालत का अंतरिम आदेश अभी नहीं आया है। लेकिन संभव है कि देर सबेर कोई ठोस हल निकाल दे। फिलहाल चुनाव आयोग ने इस पर सख्त रवैया अपनाया हुआ है। उसने सभी राजनैतिक दलों को पत्र लिखकर चुनावी वादों को लेकर आगाह किया है। पत्र में कहा गया है कि कोई भी राजनीतिक दल खोखला चुनावी वादा न करें। जो भी चुनावी वादा किया जाए उसमें इस बात का ख्याल रखा जाए कि क्या वह आर्थिक रूप से पूरे किए जाने लायक हैं भी या नहीं। दरअसल जनता को यह मालूम होना चाहिए कि वह जिन लुभावने वादों की वजह से किसी दल को चुनना चाहती है, उन्हें पूरा करने में वह दल सक्षम है या नहीं। यही वजह है कि चुनाव आयोग ने पत्र लिखा है। पत्र के अनुसार कोई भी राजनीतिक दल जो, चुनावी सौगात का वादा करता है उसे बताना होगा कि जो सौगात की घोषणा की गई है वह कुल कितने लोगों तक पहुंचेगी? संभावित खर्च क्या होगा? इसके लिए रकम कहां से आएगी? आम जनता पर टैक्स का कितना बोझ बढ़ेगा? आदि-आदि। फौरी तौर पर यह व्यवस्था उचित मालूम होती है, लेकिन इसमें भी कई विसंगतियां है। दरअसल सत्ता में आसीन दल अपने वादों का तर्कपूर्ण विवरण तो दे सकता है। लेकिन अन्य दलों के लिए यह बिलकुल भी आसान नहीं होगा। विपक्षी दलों के पास सरकार की तरह विशेषज्ञों की टीम, सुविधाएं और संरचनाएं नहीं होतीं। ऐसे में सभी पक्षों को ध्यान में रखकर निर्णय लिए जाने चाहिए। यह सुनिश्चित होना चाहिए कि पक्ष-विपक्ष को बराबर का मौका मिले। यहां यह बताना जरूरी है कि चुनाव जीतने के लिए जनता से तरह-तरह के वादे करने की परंपरा शुरू से रही है। लेकिन साठ के दशक से चुनाव जीतने के लिए मुफ्त में सामान और सुविधा देने के वादे दक्षिण के राज्यों से शुरू हुए। बीच-बीच में चुनाव आयोग की सख्ती से उसके तरीकों में बदलाव भले ही होते रहे, लेकिन वह कभी बंद नहीं हुए। वैसे देखा जाए तो संकट के समय सरकार हमेशा मुफ्त में ही जनता की मदद करती रही है। जैसे प्राकृतिक आपदा या अन्य संकटों में केंद्र और राज्य की सरकारें ही सहारा बनती रही हैं। इसके अलावा सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोगों को विभिन्न तरीके से सब्सिडी देने की परिपाटी भी  रही है, जो आज भी जारी है। सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज और सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा शुरू से ही दी जा रही है। अनेक योजनाओं में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए छूट और सस्ते राशन देने की व्यवस्था भी पहले से चली आ रही है। दरअसल नेपाल में भयंकर आर्थिक संकट के बाद ही मुफ्त की रेवड़ियों पर अंकुश लगाने की बात शुरू हुई। हालांकि सरकार की तरफ से इस पर सफाई भी दी गई। हमारा मानना है कि यह तय होना जरूरी है कि कौन सी घोषणा जनहित में जरूरी है और कौन सी मुफ्त की रेवड़ी। आज हर दल चुनाव में अपने हिसाब से जनता को लुभाने के लिए वादे करते हैं। कुछ को सफलता भी मिली। लेकिन ऐसे वादे हमेशा सफल भी नहीं होते, इसलिए जनउपयोगी और मुफ्त की रेवड़ी में फर्क किया जाना जरूरी है। बहरहाल, चुनाव आयोग ने प्रस्ताव तैयार कर सभी दलों को पत्र लिखा है, लेकिन इस संबंध में कुछ कर पाना आम जनता के हाथ में ही है। जनता को ही फैसला लेना होगा। राजनीतिक दल आयोग की बातों को कितनी गंभीरता से लेते हैं, यह सर्वविदित है। ऐसे में अब बहुत कुछ सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर निर्भर करेगा।