O डॉ. सूर्यकांत मिश्रा
हमें स्वतंत्र हुए पूरे 75 वर्ष हो गए । उस वक्त जब अंग्रेजों ने हमारी धरती छोड़ी तब हम समस्याओं से जूझ रहे थे । हमारा अपना संविधान नहीं था । हमारी अपनी भाषा के लिए हम आपस में सिर फुटव्वल कर रहे थे । जाति, धर्म और मजहब भी बड़ा सवाल था । यही कारण था कि हमें आधी रात परिस्थितिवश निर्णय लेते हुए अपने देश के शरीर पर प्रहार कर पाकिस्तान का निर्माण करना पड़ा । हमने धीरे – धीरे अपनी समस्याओं पर विजय पाते हुए नियम और कानून बनाए । हमारा अपना संविधान भी अस्तित्व में आया । समय – समय पर मांग और जरूरत के आधार पर हमने अपने संविधान के अनुच्छेदों में संशोधन भी किया । आज 75 वर्ष की गौरवान्वित करने वाली हमारी आजादी हमें ललकार रही है और हमसे पूछ रही है – ऐ ! हिंदुस्तानियों मां भारती की आरती करने वाले राष्ट्र प्रेमियों क्या तुम्हें शर्म और लिहाज नहीं कि तुमने अब तक अपनी राष्ट्रभाषा ही नहीं बना पाई ! ऐसी क्या विवशता है कि देश की पहचान बनाने वाली भाषा को तुमने उसके सिर का ताज नहीं पहनाया ! आजादी के बाद संविधान में किए गए 15 वर्ष के प्रावधान को कैसे आज तक तुमने उतारकर नहीं फेंका ? अंग्रेजी संपर्क भाषा वाली लाइन पर कालिख कैसे नहीं पोती जा सकी ? क्या इन अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर हम आज दे पाने की स्थिति में हैं ? अब हम एक ताकतवर स्थिति में हैं । हम अपने विभिन्न प्रांतों के विरोध के कारण राष्ट्रभाषा से दूर खड़े हैं ? अब इसे सुधारवादी शब्दों की माला पहनाकर हिन्दी को माथे की बिंदी बनाने का समय आ चुका है ।
हमारी अपनी राष्ट्रभाषा – पहचान, शक्ति, एकता और अखंडता के संभावित आधार के रूप में भारतवर्ष में विभिन्न राजनीतिक दलों और भाषाई समूहों के बीच काफी लंबे समय से बहस का विषय रही है । मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं कि अपनी ही भाषा के लिए अपने लोग दुश्मन की सीमा रेखा पर तैनात क्यों हैं ? आज हम इस स्थिति में हैं कि अपनी भाषा को उसका सम्मान आसानी के साथ दिला सकते है । छोटी – छोटी बातों पर अनेक बार संविधान संशोधन कर हमे अपना स्वार्थ सिद्ध किया है । आज केंद्र में बैठी नरेंद्र मोदी की सरकार के पास उतना बहुमत है जितना शायद इससे पूर्व किसी सरकार के पास नहीं रहा । केवल एक वीटो पावर की जरूरत है और हमारी अपनी भाषा ” राजभाषा ” से ” राष्ट्रभाषा ” के अलंकरण से विभूषित की जा सकती है । हमें संविधान के उन प्रावधानों को बदलने की जरूरत मात्र है जहां यह लिख दिया गया है – कि 15 वर्षों तक अंग्रेजी हिंदी की संपर्क भाषा के रूप में काम करती रहेगी ( यह समय काफी पहले खुद ही समाप्त हो चुका है ) साथ ही इसे भी बदलना होगा जहां यह उल्लेखित है कि जब तक देश का एक भी प्रदेश हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने या स्वीकार करने से परहेज करेगा तब तक यह राष्ट्रभाषा नहीं बन सकेगी ! क्या इसे संशोधित करना हमारी संसद और राज्य सभा के लिए असंभव है ? शायद नहीं, केवल इच्छाशक्ति की जरूरत है ।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की लड़ाई कोई आज की नहीं है । संयुक्त राज्य प्रांत से संविधान सभा में एक कांग्रेस सदस्य आर वी धूलेकर ने 10 दिसंबर 1946 को राष्ट्रभाषा पर एक संशोधन पेश किया । जब उन्होंने हिंदुस्तानी भाषा में बोलना शुरू किया तो संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें वीरता पूर्वक याद दिलाया कि कई सदस्यों को इस भाषा को समझना मुश्किल होगा । इस सुझाव पर ध्यान न देते हुए धुलेकर जी ने अपने तर्क को दृढ़ता पूर्वक दोहराया – ” जो लोग हिंदुस्तानी भाषा नहीं जानते उन्हें भारतवर्ष में रहने का कोई हक नहीं है । जो लोग इस सदन में भारतवर्ष के लिए एक संविधान बनाने के लिए मौजूद हैं और हिंदुस्तानी भाषा नहीं जानते वे इस सभा के सदस्य बनने के योग्य नहीं हैं । ” धुलेकर ने अपने संशोधन प्रस्ताव में यह भी प्रस्ताव रखा कि संविधान सभा की प्रक्रिया समिति को नियम हिंदुस्तानी भाषा में बनाने चाहिए न कि अंग्रेजी में । उन्होंने व्यंग्यात्मक टिप्पणी में कहा – ” हम सभी अमेरिका ,जापान , जर्मनी ,स्विट्जरलैंड और हाउस ऑफ कॉमन्स के विषय में बात करते हैं । इसने मुझे सिरदर्द ही दिया है । मुझे आश्चर्य है कि भारतीय अपनी भाषा क्यों नहीं बोलते हैं ? एक भारतीय होने के नाते मुझे लगता है कि सदन की कार्यवाही हिंदुस्तानी भाषा में ही होनी चाहिए । ”
आज के संदर्भ में जहां तक मैं समझता हूं केंद्र की भाजपा शासित सरकार , जिसके मुखिया नरेंद्र मोदी हैं ,उन्हें धुलेकर जी की भूमिका में आगे आने की जरूरत है । भरपूर जन – समर्थन के बाद भी यदि उन्होंने सच्चा देश भक्त और सच्चा भाषा भक्त होने का परिचय नहीं दिया तो इतिहास यह भूल जायेगा उनके अटल प्रयास ने राम मंदिर बनवाकर देश को राम का देश होने का गौरव दिलाया है । हमारी वर्तमान और आने वाली पीढ़ी उनके उस अदम्य साहस को भी विस्मृत कर देगी जिसने धरती के स्वर्ग कश्मीर को धारा 370 से निजात दिलाई । यह बात मैं पूरे दावे के साथ कह सकता हूं कि नरेंद्र मोदी का राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए आव्हान मात्र हमें राष्ट्रभाषा हिन्दी का उपहार दिला सकता है । जहां तक दक्षिण भारत का सवाल है , जो शुरुआती दिनों से ही हिन्दी का विरोध करता आ रहा है , उसे ठीक उसी तरह संतुष्ट किया जा सकता है जिस तरह स्वतंत्रता के समय हिन्दी भाषा के लिए अंग्रेजी की बैसाखी हमें थमा दी गई थी । उन्हें भी इस प्रावधान के साथ जोड़ा जा सकता है कि अपने राज्य में वे राज्य की भाषा को कामकाज की भाषा बना सकते हैं ।
यहां यह उल्लेखनीय है कि 26 जनवरी 1950 को संविधान के लागू होते ही वल्लभ भाई पटेल सहित कुछ हिन्दी उत्साही लोगों ने हिन्दी के सवाल को रोजगार से जोड़ना शुरू कर दिया था । जब 21मई 1950 को सरदार वल्लभ भाई पटेल तिरुवनंतपुरम में अपना भाषण दे रहे थे तो उन्होंने रेखांकित किया कि यदि दक्षिण भारत के लोग हिन्दी ” राष्ट्रीय भाषा ” नहीं सीखते हैं तो वे केंद्रीय संगठनों और केंद्र सरकार दोनों में पिछड़ जायेंगे । इसी तरह के विवादों के चलते 1963 में राजभाषा अधिनियम बनाया गया और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संसद में अपना व्यक्तिगत आश्वासन दिया कि – ” गैर हिन्दी राज्यों पर हिन्दी थोपने का प्रयास नहीं किया जायेगा ।” हमारे देश की सरकार वर्तमान में यह प्रस्ताव जरूर ला सकती है कि देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी ही होगी , जिसे सभी को स्वीकार करना होगा भले ही वे अपने राज्य की भाषा में कामकाज करें ।
