अरुण पटेल
मध्य प्रदेश के मतदाताओं ने 28 उपचुनावों के नतीजों में प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती के प्रदेश में सत्ता की चाबी अपने हाथ में लेने के अरमानों पर पानी फेर दिया। जनता ने भाजपा के पक्ष में सरकार चलाने का जो जनादेश दिया है उसमें बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों की सौदेबाजी करने की ताकत को भी शून्य कर दिया है। राज्य में भाजपा और कांग्रेस के बीच पूरी तरह से ध्रुवीकरण हो गया है और अब एक बात साफ हो गई है कि तीसरा विकल्प बनने का मंसूबा पालने वाले दलों के लिए के लिए यहां की राजनीति में कोई स्थान नहीं है। चुनावी समीकरणों को ये दल भाजपा और कांग्रेस की जीत-हार की संभावना प्रभावित कर सकते हैं, लेकिन बड़ी तीसरी शक्ति के रूप में उभर नहीं सकते। मतदाता भाजपा या कांग्रेस को ही एक दूसरे का विकल्प मान चुके हैं और वह तीसरी शक्ति को विकल्प के रूप में मौका नहीं देते हैं। भाजपा और कांग्रेस के अलावा किसी अन्य दल के लिए यहां की धरा उर्वरा नहीं है। पहली बार यहां के मतदाताओं ने 1972 में दो-टूक जनादेश कांग्रेस या जनसंघ जो बाद में भाजपा हो गई को ही देना चालू किया। उसके बाद 1990 के विधानसभा चुनाव में जनता दल को जरूर 20 से अधिक सीटें मिली थीं लेकिन उसे यहां पर तीसरी शक्ति के अभ्युदय के रूप में मतदाताओं की मान्यता नहीं मानी जा सकती क्योंकि उस चुनाव में भाजपा और जनता दल का समझौता था। भाजपा के समर्थन से केंद्र में जनता दल की सरकार चल रही थी और विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री थे। इसलिए यहां तीसरी ताकत कोई नहीं बन सका और उनके मंसूबों पर हमेशा ही मतदाताओं ने पानी ही फेरा है।
उपचुनावों में बसपा ने 28 उम्मीदवार खड़े किए थे पर वह अपना खाता भी नहीं खोल पाई जबकि उसके प्रदेश अध्यक्ष रमाकांत पिप्पल का मतदान के बाद 10 सीट जीतने का दावा था। उन्होंने सत्ता की चाबी अपनी मुट्ठी में बंद करने के लक्ष्य को लेकर चुनाव लड़ा था। उसके 8 उम्मीदवारों को ही 5000 से अधिक मत मिल पाए। इतना जरूर हुआ की उम्मीदवारों की मौजूदगी से पांच सीटों पर कांग्रेस और एक सीट पर भाजपा पराजित हो गई। यह मतदान के आंकड़ों के आईने में नजर आता है। बसपा के जिन 8 उम्मीदवारों को 5000 से अधिक मत मिले उनमें सर्वाधिक 48285 मत जौरा में और उसके बाद सबसे कम मत 7055 भांडेर में मिले जहां पर कांग्रेस उम्मीदवार फूल सिंह बरैया मात्र 161 मतों से चुनाव हार गए जबकि वहां बसपा उम्मीदवार कांग्रेस अनुसूचित जाति विभाग के प्रदेश अध्यक्ष रहे और पूर्व गृहमंत्री महेंद्र बौद्ध थे। बौद्ध फूल सिंह बरैया को कांग्रेस उम्मीदवार बनाने से नाराज थे तथा बौद्ध ने पार्टी छोड़कर हाथी की सवारी कर ली, पर उन्हें जो मत मिले हैं वह उनके राजनीतिक कद को देखते हुए काफी कम है। एक उद्देश्य में वह जरूर सफल रहे कि उन्होंने कांग्रेस के फूल सिंह बरैया को भी विधायक नहीं बनने दिया। ज्यादातर क्षेत्रों में जब भी बसपा चुनाव मैदान में उतरती है तो 2 अंकों में भी नहीं पहुंच पाती है पर हार जीत के फैसले में निर्णायक भूमिका अदा करती है।
उपचुनावों में बसपा का खाता नहीं खुलने का एक और कारण यह भी हो सकता है कि 2018 के चुनाव के बाद बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों ने जिस प्रकार की कलाबाजियां दिखाई और उनमें से कुछ इधर-उधर कुछ उछल कूद करते रहे वह मतदाताओं के मानस में रहा हो । बसपा विधायक रमाबाई तो हमेशा मंत्री बनाने की बात करती रहीं और उनकी कोशिश कमलनाथ सरकार को दबाव में रखने की रही। भाजपा को समर्थन देकर वैसा ही यहां भी कर रही थीं। 1962 के बाद प्रदेश में पहला मौका था जब मतदाताओं ने खंडित जनादेश दिया। एक निर्दलीय विधायक प्रदीप जायसवाल को कमलनाथ ने अपनी सरकार में खनिज संसाधन विभाग का मंत्री बनाया और सुरेंद्र सिंह शेरा भी निर्दलीय विधायक थे और लगातार मंत्री बनाने का दबाव बनाते रहे। जब कमलनाथ सरकार गिरने की कगार पर आ गई थी उस समय शेरा कभी कमलनाथ के पाले में खड़े नजर आते थे तो कभी भाजपा खेमे में। प्रदीप जयसवाल कमलनाथ सरकार में मंत्री रहते भाजपा को समर्थन देने का संकेत दे रहे थे तो बाद में उन्होंने शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार को समर्थन दिया और बदले में खनिज विकास निगम के अध्यक्ष बन गए। वह भी उसी निगम के जो मंत्री रहते हुए उनके अधीन था। शायद 15 माह तक जो कुछ बसपा और सपा की भूमिका रही उसको देखते हुए मतदाताओं ने सौदेबाजी की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी और अब शिवराज सिंह चौहान बिना किसी दबाव के राज करते रहेंगे।
उपचुनावों में बसपा को इतना फायदा जरूर हुआ कि पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में उसके मत प्रतिशत में थोड़ी सी वृद्धि हो गई। 2018 विधानसभा चुनाव में उसे 5.1 मत मिले थे जो बढकर 5.75 प्रतिशत हो गए। उसने सर्वाधिक नुकसान कांग्रेस को पांच सीटों पर और एक सीट पर भाजपा को पहुंचाया है। पांच क्षेत्रों पोहरी, मुरैना, मलहरा, मेहगांव और दिमनी में उसे 10,000 से 48000 तक मत मिले। अंबाह,भांडेर और ग्वालियर पूर्व में उसे 5000 से अधिक मत मिले।
*और अंत में…………….*
यह एक संयोग ही है कि जिन महिला मंत्रियों ने राज्य सरकार में महिला एवं बाल विकास विभाग का दायित्व संभाला उसे उसके बाद चुनाव में हार का सामना करना पड़ा और सदन में बैठना उन्हें नसीब नहीं हुआ। कोई भी महिला मंत्री इसके बाद चुनाव नहीं जीत पाई तो फिर यह माना जाएगा कि इस विभाग का प्रभार मंत्री के राजनीतिक भविष्य को देखते हुए अभी तक तो उनके लिए भारी पड़ा है। कमलनाथ और शिवराज सरकार में महिला व बाल विकास मंत्री रहीं इमरती देवी जिनकी जीत लोग पक्की मान रहे थे, के चुनाव हारने के बाद यह चटकारेदार चर्चा का विषय बन गई। इमरती देवी 2018 का विधानसभा चुनाव 57 हजार से अधिक मतों से जीती थीं पर उपचुनाव हार गईं। 2018 का विधानसभा चुनाव वह सब महिलाएं हार गईं जो महिला एवं बाल विकास मंत्री रही थीं।अर्चना चिटनिस, रंजना बघेल, कुसुम मेहदेले और ललिता यादव इसमें शामिल हैं। श्रीमती माया सिंह भी महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री थीं पर उनकी टिकट कट गई।