सत्ताधीश गांधी के स्मरण व अनुसरण में फर्क करने में विफल रहे

– उमेश त्रिवेदी

गांधी हिन्दुस्तान के मिजाज में उस वैचारिक हस्तक्षेप और भरोसे का नाम है, जिसकी जरूरत हर उस मौके पर पड़ती है, जब देश का संवर्द्धन करने वाले लोकतांत्रिक मूल्यों पर कुठाराघात होता है। आजादी के बाद सत्तर सालों से जारी राजनीतिक क्षरण और अवमूल्यन के बावजूद देश में गांधी-विचार का वृहत्ताकार अस्तित्व और जीवंत उपस्थिति लोकतंत्र को दीपांकित करती महसूस होती हैं। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के समापन पर बापू को याद करने की राजनीतिक औपचारिकताएं बीते समय के ऐतिहासिक शिलालेखों से ज्यादा भारत के भविष्य के तकाजों में गांधी की प्रासंगिकता को रेखांकित करती हैं। महात्मा गांधी की प्रभावशीलता बहुआयामी है, जिसमें राष्ट्र, समाज और व्यक्ति, सबके लिए वैचारिक रचनाशीलता की अनगिनत संभावनाएं झिलमिल करती दिखती हैं। शायद इसीलिए गांधी कभी हारते नजर नहीं आते हैं। वो हमेशा जीतते हैं। जो उन्हें हराना चाहते हैं, उनसे भी वो जीतते है और जो उनके साथ चलना चाहते हैं, वो उनको हारने नहीं देते हैं।
1932 में साहित्य का नोबल पुरूस्कार जीतने वाली प्रसिद्ध विचारक साहित्यकार पर्ल एस. बक ने महात्मा गांधी के बारे में कहा था कि ’वे सही थे, वे जानते थे कि वे सही हैं, हम सब जानते हैं कि वे सही थे। उनकी हत्या करने वाला भी जानता था कि वे सही हैं। हिंसा की अज्ञानता चाहे जितनी लंबी चले, वे यही साबित करतें हैं गांधी सही थे’। महात्मा गांधी के बारे मे पर्ल एस. बक का यह ऑब्जर्वेशन मौजूदा वक्त में उनकी प्रांसगिकता को गहरा करता है। हम कह सकते हैं कि वर्तमान काल में हर तरह की हिंसा झेल रहे भारत में गांधी मार्ग ज्यादा प्रांसगिक और आवश्यक प्रतीत होता है। दलित अत्याचार, महिला उत्पीड़न और सांप्रदायिक हिंसा के इस दौर में गांधी की नसीहतों से ज्यादा कारगर कोई दूसरा औजार शायद समाज में उपलब्ध नहीं है। लेकिन गांधी मार्ग से सामाजिक और राजनीतिक सिद्धियां हासिल करने के लिए हमें बापू के स्मरण और उनके अनुसरण में फर्क की गंभीरता को महसूस करना होगा। भारत के सत्ताधीश गांधी के स्मरण और अनुसरण में अंतर की राजनीतिक और सामाजिक गंभीरता का आकलन करने में लगभग असफल रहे हैं। पिछले 6 सालों में देश ने गांधी को जितना याद किया, आजादी के चौंसठ सालों में किसी दूसरी सरकार ने गांधी को शायद उतना याद नहीं किया होगा।
गांधी की वल्दियत और वसीयत के नाम पर सियासी लूट-खसोट का यह सिलसिला नेताओं की तासीर में छलक रहा है। कागज के फूलों में गांधी की खुशबू ढूंढने की नाकारा कोशिशें राजनीति के हैरतअंगेज कारनामे के रूप में सुलग कर समाज में पिघलन पैदा कर रही हैं। गांधी तस्वीरों में, तकरीरों में, तदबीरों में, हमारे आसपास बहुतायत में मौजूद हैं। रेलवे स्टेशन, सरकारी दफ्तरों और चौराहों पर उनकी मूरत और शिलालेखों की भरमार है। महात्मा गांधी की यह उपस्थिति भ्रम पैदा करती है कि हमारे सामाजिक और राजनीतिक परिवेश में वो गहरे समाए हुए हैं। सही अर्थों में महात्मा गांधी की यह पथरीली उपस्थिति लोगों के देखने और दिखाने के तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं हैं। उनके बारे में सतही जानकारियों के चलते ही उन्हें पहचानने के हमारे मुहावरे कई मर्तबा कचोटते हैं। गांधी मार्ग पर चलने के पैमाने टूटते हैं। अब वह समय आ गया है कि जबकि गांधी की प्रासंगिकता के सवाल गहराई से एक विमर्श की मांग करते हैं। राष्ट्र विश्‍वसनीयता के संकट की गिरफ्त में है। देश की आंतरिक परिस्थितियों में अंगारे चटख रहे हैं। पाकिस्तान और चीन सीमाओं पर बारूद की सुरंगे बिछी हैं। नेपाल और श्रीलंका जैसे परम्परागत मित्र-राष्ट्रों के साथ रिश्तों में टूटन महसूस हो रही हैं। यह विचार जरूरी है कि शत्रुता, संघर्ष और हिंसा के अंगारों के साथ हम कितना आगे बढ़ सकते हैं। हिंसा और प्रतिशोध की प्रवृत्तियां किसी भी राष्ट्र और समाज के जीवन-संवर्धन का स्थायीभाव नहीं हो सकती है। नागरिकों के बीच निरन्तर तनाव, संघर्ष और अविश्‍वास राष्ट्र और समाज में विघटन का सबब बनता है। महात्मा गांधी कहते थे कि आंख के बदले आंख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी…आंख के बदले आंख का सिद्धांत सामाजिक-सहअस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
महात्मा गांधी की 151वीं जयंती पर लोगों के लिए खुद से यह सवाल पूछना लाजमी है कि जिन राजनीतिक और सामाजिक मूल्यों की खातिर गांधी ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी, क्या हम उन्हें कायम करने में कामयाब हो पाएं हैं? हमारे इर्दगिर्द हर शै गांधी मौजूद हैं , लेकिन त्रासदी यह है कि हमारे जहन में उकेरे जा रहे उनके रेखाचित्रो में अब वो पगड़ीधारी गुजराती बनिया है, नमक-सत्याग्रह की अगुवाई करता वह फकीर नहीं, जिसके पीछे आसमान दौड़ता था।

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