आपकी बात- चुनावी बॉन्ड्स:भाजपा को करारा झटका, लोकतंत्र हुआ मजबूत 

0 संजीव वर्मा
       उच्चतम न्यायालय ने पिछले हफ्ते एक ऐतिहासिक फैसले में राजनीति के वित्तपोषण के लिए लाई गई चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया। इससे सबसे करारा झटका सत्तारूढ़ भाजपा को लगा है, क्योंकि इलेक्टोरल बॉन्ड से सबसे ज्यादा चंदा उसे ही मिला है। अदालत ने कहा है कि 12 अप्रैल से अब तक की चुनावी बॉन्ड्स किन-किन लोगों ने खरीदे और कितनी रकम लगाई  है उसकी  जानकारी पहले स्टेट बैंक की ओर से चुनाव आयोग को दी जाएगी। फिर आयोग की ओर से जनता को यह जानकारी मिलेगी। निश्चित रूप से अदालत का यह फैसला न केवल ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण है बल्कि चुनाव सुधारों की दिशा में भी अहम कदम है। पिछले 6 सालों में इस योजना के जरिए विभिन्न दलों को 16 हजार करोड़ रूपए से अधिक की राशि मिली है। लेकिन यह राशि कहां से मिली है और किसे मिली, इसकी जानकारी पार्टी के अलावा किसी को नहीं है। दरअसल चुनावी बॉन्ड वित्तीय तरीका है, जिसके माध्यम से राजनीतिक दलों को चंदा दिया जाता है। इसकी व्यवस्था नोटबंदी के बाद 2017-18 में तत्कालीन वित्तमंत्री अरूण जेटली ने केन्द्रीय बजट में की थी। इसके लिए रिजर्व बैंक, आयकर, कंपनी, जनप्रतिनिधित्व और विदेशी चंदों से जुड़े कई कानूनों में बदलाव भी किए गए थे। चुनावी बॉन्ड के तहत एक वचन पत्र जारी किया जाता है। जिसके धारक को राशि देने का वादा होता है। इसमें बॉन्ड के खरीदार या भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता, स्वामित्व की कोई जानकारी दर्ज नहीं की जाती। इसमें धारक यानी राजनीतिक दल को इसका मालिक माना जाता था। चुनावी बॉन्ड को भारत का कोई भी नागरिक, कंपनी या संस्था खरीद सकती थी। ये बॉन्ड 1 हजार, 10 हजार, 1 लाख और 1 करोड़ के हो सकते थे। हालांकि इन्हें प्राप्त केवल राजनीतिक दल ही करते थे, जो लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29 ए के तहत रजिस्टर्ड हैं और जिन्हें पिछले लोकसभा या राज्य विधानसभा के चुनाव में एक प्रतिशत से अधिक वोट मिले हो। इन बॉन्ड को स्टेट बैंक आफ इंडिया की 29 शाखाओं से खरीदा जा सकता था। अब जबकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ गया है तो राजनीतिक दलों में खलबली मचना स्वाभाविक है । हालांकि भाजपा सहित सभी दल फैसले का सम्मान करने की बात कह रहे हैं , लेकिन यह सच है कि भाजपा अंदर से हिल गई है। चुनाव आयोग और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) में उपलब्ध डाटा के अनुसार चुनावी बॉन्ड से सबसे ज्यादा 55 प्रतिशत हिस्सा अकेले भाजपा को मिला है, जो 6565 करोड़ रूपए होता है। एक अनुमान के अनुसार पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग 60 हजार करोड़ रूपए खर्च हुए थे। नियमों की धज्जियां उड़ाकर प्रत्याशी कालेधन का चुनावों में इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा सभी पार्टियों को कानूनी और गैर कानूनी तरीके से चंदा मिलता है। सरकार की तरफ से चुनाव सुधार और चंदे को लेकर समितियां भी बनी। उसमें सुझाव भी आए लेकिन सभी दरकिनार कर दिए गए। समितियों ने अपनी रिपोर्ट में कहा भी है कि नेता, अपराधी और कॉरपोरेट्स की मिलीभगत लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है। लेकिन सरकारें इससे आंखें मूंदी रही। आज भी नेताओं के संरक्षण में खनन, रियल एस्टेट और नौकरी में माफिया सक्रिय है। दिवालियां कानून की आड़ में अनेक कंपनियां सरकारी बैंकों का पैसा हजम कर रही है। ऐसी कंपनियों को चुनावी बॉन्ड की आड़ में फंडिंग की इजाजत देना देश के खजाने की लूट ही मानी जाएगी। बहरहाल, विपक्ष में रहकर सभी पार्टियां चुनावी सुधार की बात करती है, लेकिन सरकार बनाने की होड़ में कालेधन के जरिए शुचिता के संकल्प को तिलांजलि दे देती है। यह लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत नहीं है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अदालत के फैसले से न केवल चुनावों में कालाधन पर अंकुश लगेगा बल्कि राजनीतिक व्यवस्था को पारदर्शी बनाने में भी मदद मिलेगी। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे पारदर्शी फंडिंग पर अमल करें। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं का भी मान-सम्मान बढ़ेगा। इस फैसले से न्यायपालिका का रसूख तो दिखा ही है, लोकतंत्र का मान भी बढ़ा है।