श्रीराम को गंगा पार करवाने वाले केवट से जुड़ा है ये रहस्य

रामायण भारतीय मनीषा का अद्भुत ग्रंथ है। भगवान विष्णु ने अवतार ग्रहण कर अयोध्या नरेश राजा दशरथ के यहां उनकी पटरानी कौशल्या के गर्भ से श्रीराम के रूप में जन्म लिया था। बालकांड में भगवान श्रीराम के जन्म के अनेक कारणों का उल्लेख मिलता है। इनमें नारद के शाप से लेकर भगवान विष्णु के द्वारपालों की कथाएं हैं। रामायण में रामकथा जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, घटना विशेष के पीछे कोई न कोई अंतर्कथा जुड़ी हुई है। अयोध्या कांड में श्रीराम वन गमन के प्रसंग में श्रीराम, लक्ष्मण और सीता चौदह वर्ष के वनवास के लिए अयोध्या से निकलकर निषादराज के साथ गंगा नदी के किनारे पहुंचते हैं, जहां उन्हें केवट मिलता है। श्रीरामचरित मानस में लिखा है कि-
मांगी नाव न केवटु आना।
कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना।।
चरन कमल रज कहुं सबु कहई।
मानुष करनि मूरि कछु अहई।।
छुअत सिला भइ नारि सुहाई।
पाहन तें न काठ कठिनाई।।
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई।
बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।

श्रीराम गंगा पार करने के लिए केवट से नाव मांगते हैं, लेकिन केवट नाव लेकर नहीं आता। वह श्रीराम से कहता है कि मैंने तुम्हारा भेद जान लिया है, सभी लोग कहते हैं कि तुम्हारे पैरों की धूल से एक पत्थर से सुंदर स्त्री बन गई थी। मेरी नाव तो लकड़ी की है, कहीं इस नाव पर तुम्हारे पैर पड़ते ही यह भी स्त्री बन गई तो मैं लुट जाऊंगा। यही नाव मेरे परिवार का भरण-पोषण करती है।

यहां प्रश्न उठता है कि आखिर वह कौन-सा मर्म था जो केवट यानी निषादराज जान गया था? इस संदर्भ में एक कथा मिलती है-

एक बार क्षीरसागर में भगवान विष्णु शेष शैया पर विश्राम कर रहे थे और लक्ष्मी जी उनके पैर दबा रही थीं। विष्णु जी के एक पैर का अंगूठा शैया के बाहर आ गया और लहरें उससे खिलवाड़ करने लगीं। क्षीरसागर के एक कछुए ने इस दृश्य को देखा और मन में यह विचार करा कि मैं यदि भगवान विष्णु के अंगूठे को अपनी जिह्वा से स्पर्श कर लूं तो मेरा मोक्ष हो जाएगा।

यह सोचकर वह कछुआ भगवान विष्णु के चरणों की ओर बढ़ा। उसे भगवान विष्णु की ओर आते हुए शेषनाग जी ने देख लिया और उसे भगाने के लिए जोर से फुंफकारा। फुंफकार सुन कर कछुआ भाग कर छुप गया। कुछ समय पश्चात जब शेष जी का ध्यान हट गया तो उसने पुन: प्रयास किया। इस बार लक्ष्मी देवी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे भगा दिया। इस प्रकार उस कछुए ने अनेकों प्रयास किए पर शेष जी और लक्ष्मी माता के कारण उसे कभी सफलता नहीं मिली। यहां तक कि सृष्टि की रचना हो गई और सतयुग बीत जाने के बाद त्रेता युग आ गया। इस बीच उस कछुए ने भी अनेक बार अनेक योनियों में जन्म लिया और प्रत्येक जन्म में भगवान की प्राप्ति का प्रयत्न करता रहा। अपने तपोबल से उसने दिव्य दृष्टि प्राप्त कर ली।

कछुए को पता था कि त्रेता युग में वही क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु राम का, वही शेषजी लक्ष्मण का और वही लक्ष्मी देवी सीता के रूप में अवतरित होंगे तथा वनवास के समय उन्हें गंगा पार उतरने की आवश्यकता पड़ेगी इसीलिए वह भी केवट बनकर वहां आ गया था। एक युग से भी अधिक काल तक भगवान का चिंतन करने के कारण उसने प्रभु के सारे मर्म जान लिए थे इसीलिए उसने श्रीराम से यह कहा था कि मैं आपका मर्म जानता हूं। मानसकार गोस्वामी तुलसीदास जी भी इस तथ्य को जानते थे इसलिए अपनी चौपाई में केवट के मुख से कहलवाया- च्कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना।ज्

केवल इतना ही नहीं, इस बार केवट इस अवसर को किसी भी प्रकार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। उसे याद था कि शेषनाग क्रोध करके फुंफकारते थे और मैं डर जाता था। अबकी बार वे लक्ष्मण के रूप में मुझ पर अपना बाण भी चला सकते हैं पर इस बार उसने अपने भय को त्याग दिया था, लक्ष्मण के तीर से मर जाना उसे स्वीकार था पर इस अवसर को खोना गवारा नहीं इसीलिए केवल बोला-
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहौं।
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साची कहौं।।
बरु तीर मारहु लखनु पै जब लगि न पाप पखारिहौं।
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारु उतारिहौं।।

अर्थात हे नाथ! मैं चरणकमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूंगा, मैं आपसे उतराई भी नहीं चाहता। हे राम! मुझे आपकी दुहाई और दशरथ जी की सौगंध है, मैं आपसे बिल्कुल सच कह रहा हूं। भले ही लक्ष्मण जी मुझे तीर मार दें, पर जब तक मैं आपके पैरों को पखार नहीं लूंगा, तब तक (हे तुलसीदास के नाथ) हे कृपालु मैं पार नहीं उतारूंगा।

फिर जो हुआ वह वही समझने योग्य है। गोस्वामी लिखते हैं-
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे। बिहंसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन

केवट के प्रेम में लपेटे हुए अटपटे वचन सुन कर करुणा के धाम श्री रामचंद्र जी जानकी जी और लक्ष्मण जी की ओर देखकर हंसे। जैसे वे उनसे पूछ रहे हैं कहो अब क्या करूं, उस समय तो केवल अंगूठे को स्पर्श करना चाहता था और तुम लोग इसे भगा देते थे पर अब तो यह दोनों पैर मांग रहा है। केवट बहुत चतुर था। उसने अपने साथ ही साथ अपने परिवार और पितरों को भी मोक्ष प्रदान करवा दिया।
जब गंगा पार हो गई तब-
उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता।
सीय रामु गुह लखन समेता।।
केवट उतरि दंडवत कीन्हा।
प्रभुहि सकुच एहि-नहि कछु दीन्हा।।

निषादराज और लक्ष्मण जी, सीता जी और राम जी (नाव से) उतर कर रेत (बालू) में खड़े हो गए हैं। तब केवट ने उतरकर प्रभु को दंडवत प्रणाम किया है।

सोचने वाली बात यह है कि गंगा जी के उस पार तो केवट बड़ी अकड़ दिखा रहा था। जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है-
जासु नाम सुमरित एक बार।
उतरहिं नर भवसिंधु अपारा।।
सोई कृपालु केवटहिं निहोरा।
जेहिं जगु किय तिहु पगहु ते धोरा।।

एक बार जिनका नाम स्मरण करते ही मनुष्य भवसागर से पार उतर जाते हैं और जिन्होंने (वामनवतार में) संसार को तीन पग से भी छोटा कर दिया था (अर्थात दो ही पग में त्रिलोकी को नाप लिया था), वही कृपालु श्री रामचंद्र जी गंगा पार उतरने के लिए केवट का निहोरा कर रहे हैं लेकिन गंगा जी के इस पार आकर केवट द्वारा भगवान राम को दंडवत प्रणाम करने का कारण यह था कि गंगा जी के उस पार केवट ने प्रभु के चरण नहीं पकड़े (धोए) थे इसलिए वह अकड़ दिखा रहा था। लेकिन जब प्रभु के चरण पकड़ (धो) कर केवट गंगा जी के इस पार आया तो उसे यह अहसास हो गया कि अब अकड़ने से नहीं बल्कि अब तो चरण पकड़ कर रखने से ही काम चलेगा।

केवट कहता है कि मैंने बहुत समय तक मजदूरी की। विधाता ने आज बहुत अच्छी मजदूरी दे दी। आपकी कृपा से अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। (फिर भी आप यदि मुझे कुछ देने की बात कहते ही हैं तो) फिरती बार आप मुझे जो कुछ देंगे, वह प्रसाद मैं सिर चढ़ा कर लूंगा। तब करुणा के धाम भगवान राम ने पवित्र भक्ति का वरदान देकर उसे विदा किया।

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