बिहार में अभी हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद महागठबंधन के अस्तित्व पर सवाल उठने लगे हैं। महागठबंधन बना रहेगा या नहीं। उसका भविष्य क्या होगा? इन सब बातों को लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। दरअसल, बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए ने 202 सीटें जीतकर महागठबंधन को बैकफुट पर धकेल दिया है। उसे सिर्फ 35 सीटें ही मिली है। इसका असर यह हुआ कि महागठबंधन के भीतर ही फुसफुसाहट शुरू हो गई है। भले ही महागठबंधन में शामिल दल इस हार को “वोट चोरी” का नतीजा बताएं या चुनाव आयोग पर ठीकरा फोड़े लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि महागठबंधन के घटक दलों के भीतर ही ‘अपनी ढपली-अपना राग’ की स्थिति थी। सभी के रास्ते अलग-अलग थे। सीट बंटवारे से लेकर चुनाव प्रचार तक ‘एकला चलो’ की नीति अपनाई जा रही थी। घटक दल की सबसे बड़ी और राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस अकेले और स्वतंत्र राजनीति करने के मूड में दिख रही थी। यही कारण है कि महागठबंधन में खटपट हुई। तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करने के फैसले पर कांग्रेस ने आखिरी समय में मुहर लगाई। इससे जो अविश्वास बना उसका नतीजा यह हुआ कि महागठबंधन में शामिल दल एक दर्जन से अधिक सीटों पर एक दूसरे के खिलाफ लड़े। उधर, राजद के नेता भी कांग्रेस की राजनीति को भांप रहे थे, इसलिए तेजस्वी यादव ने भी दूरी बनाई। राहुल-प्रियंका की रैली अलग हुई और तेजस्वी ने अपनी रैलियां अलग की। यानी दोनों का प्रचार अलग-अलग चला। नतीजा यह रहा कि गठबंधन के सभी दलों के बीच असमंजस, सीट बंटवारे में टकराव और करीब दर्जनभर सीटों पर दोस्ताना मुकाबले महागठबंधन को ले डूबी। अब सवाल है कि आगे महागठबंधन का भविष्य क्या होगा? इस सवाल का जवाब फिलहाल किसी के पास नहीं है। जिस तरह से करारी हार हुई है उससे राजनीतिक परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी है। महागठबंधन को फिर से पुनर्गठित करने की जरूरत है। कांग्रेस के वोट शेयर में गिरावट और कमजोर प्रदर्शन हार की सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई है। यह महागठबंधन के स्थायित्व पर भी असर डाल सकता है। राजद की हालत भी कुछ इसी तरह है। हालांकि राजद के नेताओं का कहना है कि राजनीति में उतार-चढ़ाव आता रहता है। पार्टी फिर से मजबूती के साथ आगे आएगी, लेकिन यह कहना ही पर्याप्त नहीं है। राजद नेताओं को खासकर मुख्यमंत्री का चेहरा रहे तेजस्वी यादव को दिखाना होगा कि पार्टी रणनीति और संगठनात्मक मजबूती के साथ लौटकर आएगी। एकता में ही ताकत होती है। इस मूल मंत्र को स्वीकार करते हुए उन्हें सहयोगी दलों को विश्वास में लेकर चलने का गुर सीखना होगा। फिलहाल महागठबंधन के भीतर जिस तरह से ऊहापोह की स्थिति बनी हुई है, उसे कैसे ठीक करना है यह चुनौती पूर्ण काम है। हालांकि इतनी बड़ी हार के बाद सहयोगी दलों के बीच सामंजस्य बिठाना आसान नहीं है। लेकिन महागठबंधन को बनाए रखना है तो ऐसे चुनौती पूर्ण काम करने की जरूरत है। अब महागठबंधन के नेताओं को चाहिए कि वे बिहार में हार के कारणों का गहराई से चिंतन-मनन करें और देखें कि वह जनता को क्यों रिझा नहीं सके। साथ ही हार के बाद पीछे नहीं हटने और एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने आगे आना होगा। महागठबंधन का विस्तार करने के साथ ही जनता से जुड़ाव सुनिश्चित कर उसके सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए खासकर युवाओं और महिलाओं के सशक्तिकरण की दिशा में कदम बढ़ाएं। बहरहाल, महागठबंधन की संभावनाएं अभी खत्म नहीं हुई है। उसे चाहिए कि वह आरोप-प्रत्यारोप में न फंसे। आत्म विश्लेषण कर महागठबंधन को पुनर्गठित करें और जनता के मुद्दों को लेकर सामने आए।
महागठबंधन: अपनी ढपली-अपना राग
