रायपुर। छत्तीसगढ़ी फिल्म उद्योग इन दिनों अपने संघर्ष के दौर से गुजर रहा है। विडंबना यह है कि जिन सिनेमाघरों की धड़कन छत्तीसगढ़ी दर्शक हैं, उन्हीं टाकीज़ों में छत्तीसगढ़ी फिल्मों को जगह नहीं मिल रही। बड़े बजट की बॉलीवुड फिल्मों की भीड़ और मल्टीप्लेक्स संस्कृति के बीच स्थानीय सिनेमा धीरे-धीरे दबता जा रहा है।
पिछले कुछ सालों में छत्तीसगढ़ी फिल्में लगातार बेहतर कथानक, तकनीक और कलाकारों के दम पर नई पहचान बनाने की कोशिश कर रही हैं। मगर हालात यह हैं कि जब कोई छत्तीसगढ़ी फिल्म रिलीज़ होती है, तो उसे मुश्किल से कुछ शो मिल पाते हैं। वहीं, बॉलीवुड की बड़ी फिल्मों के लिए सिंगल स्क्रीन से लेकर मल्टीप्लेक्स तक, हफ्तों पहले से बुकिंग कर दी जाती है।
हाल ही मे रिलीज हुए बहुप्रतिक्षित फ़िल्म दंतेला जिसके रिलीज होते ही दर्शकों का जन सैलाब उमड़ पड़ा.. दंतेला को ना केवल ग्रामीण अंचल के लोगो ने खूब प्यार दिया बल्कि शहरी आडियंश भी बड़े पैमाने मे अपना आर्शीवाद दिया। यही वजह है कि खासतौर पर सिंगल स्क्रीन के अलावा शहरों के मल्टीप्लेक्स, पीवीआर, आइनॉक्स भी लगातार हॉउसफुल रहे. आपको ये भी जानकारी हैरानी होगी की दंतेला के साथ साथ कई बालिवुड के मूवी भी रिलीज हुई, जिसमे एक फ़िल्म परम सुंदरी भी शामिल थी. विकेण्ड मे दंतेला हॉउसफुल रही ही है, लेकिन नॉर्मल दिनों मे भी हर शो 70प्रतिशत ओक्यूपेंसी के साथ बेहतरीन परफोमेंस दिया वही परमसुंदरी जैसी फिल्मो के 10 प्रतिशत आक्यूपेंसी रही . बावज़ूद उसके दुर्भाग्य है की ऐसे मूवी को टाकीज मालिको के द्वारा जबर्दस्ती परदे से उतारा गया..जब टाकीज मालिकों से फ़िल्म उतारने की वजह पूछी गयी तो उन्होंने बेतुका बयान देना शुरू कर दिया… टाकीज मालिकों का कहना है की फ़िल्म की लम्बाई ज्यादा है… अगर यही तर्क है तो हाल मे रलीज हुई फ़िल्म पुष्पा को को लम्बे दिनों तक कैसे लगाया गया. अगर बात इस हफ्ते की करें तो बंगाल फाइल्स रिलीज हुयी.. जिसकी लम्बाई तक़रीबन 3 घंटे 20 मिनट की है.. ऐसे मे फिर उस फ़िल्म को प्रदेश भर के थिएटर मे रिलीज ही क्यों किया गया।
टाकीज मालिकों का कहना है कि हिंदी फिल्मों से उन्हें सीधा मुनाफा मिलता है, जबकि छत्तीसगढ़ी फिल्मों में दर्शक संख्या सीमित होती है। लेकिन सवाल यह है कि अगर क्षेत्रीय फिल्मों को ही मंच नहीं मिलेगा, तो उनका दर्शक वर्ग कैसे बढ़ेगा?
कलाकारों और निर्माताओं की पीड़ा
छत्तीसगढ़ी कलाकारों और फिल्म निर्माताओं का कहना है कि वे अपनी जमीन से जुड़ी कहानियाँ दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं, लेकिन जब उनके ही प्रदेश में फिल्में चल नहीं पातीं तो मनोबल टूटता है। कई फिल्में रिलीज़ से पहले ही रुक जाती हैं या बेहद कम शो मिलने से घाटे में चली जाती हैं।
सरकारी पहल की दरकार
विशेषज्ञ मानते हैं कि जैसे मराठी, भोजपुरी और दक्षिण भारतीय फिल्मों को उनकी राज्य सरकारें संरक्षण देती हैं, वैसा ही समर्थन छत्तीसगढ़ी सिनेमा को भी मिलना चाहिए। कर छूट, अनिवार्य स्क्रीन शेयरिंग और प्रचार-प्रसार जैसी योजनाएँ अगर लागू हों, तो छत्तीसगढ़ी सिनेमा को नई ऊर्जा मिल सकती है।
आखिरी सवाल
क्या छत्तीसगढ़ी दर्शक अपनी ही बोली-बानी की फिल्मों को बड़े पर्दे पर देखने का मौका खो देंगे? या फिर नीतिगत बदलाव और जागरूकता से यह सिनेमा फिर से अपने घर में सम्मान पाएगा—यह एक गंभीर सवाल है, जिस पर अब गहन विमर्श की जरूरत है।