– अरुण पटेल
विगत डेढ़ दशक में मध्यप्रदेश विधानसभा के जितने उपचुनाव हुए हैं उनमें मतदाताओं का रुझान अधिकांशतः सत्तारूढ़ दल के पक्ष में गया है। लेकिन यह पहला अवसर होगा जब एक साथ प्रदेश में 27 विधानसभा उपचुनाव होंगे उसमें मतदाताओं का रुझान उसी पुरानी लीग पर रहेगा या उससे इतर रुझान सामने आएगा? इन उपचुनावों और पूर्व में हुए उपचुनावों में एक मौलिक अंतर यह है कि उस समय अलग-अलग उपचुनाव की नौबत आई थी जबकि इस बार एक साथ इतने उपचुनाव हो रहे हैं और वह भी प्रदेश के अलग-अलग अंचलों में। इसीलिए यह सवाल प्रासंगिक हो जाता है, हालांकि उत्तर तो मतगणना में ही मिलेगा लेकिन इसका भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों में बेसब्री से इंतजार रहेगा। दोनों के लिए ही ये उपचुनाव अत्याधिक अहमियत रखते हैं क्योंकि नतीजों पर ही दोनों पार्टियों की आगे की राह, दिशा और दशा निर्भर रहेगी।
जब एक-दो उपचुनाव होते हैं तब मतदाता के मानस में यह बात स्पष्ट होती है कि इसके नतीजों से मौजूदा सरकार पर कोई प्रभाव और असर नहीं पड़ेगा तथा वह चलती रहेगी इसलिए सामान्यतः मतदाता का जनादेश सत्तारूढ़ दल के पक्ष में आसानी से आ जाता है क्योंकि उसे लगता है कि उसका विधायक सत्ताधारी दल का होगा तो क्षेत्र में अधिक फायदा होगा। इन उपचुनावों में मतदाता के सामने केवल अपने लिए एक जनप्रतिनिधि नहीं चुनना है बल्कि उसके सामने एक सरकार चुनने का विकल्प है। इसलिए हो सकता है कि पिछले उपचुनावों के इतर रुझान सामने आएं। यही कारण है कि मतदाता का मानस अन्य उपचुनावों की तुलना में इस बार कुछ बदलाव लिए हुए हो सकता है। वह किसी भी एक तरफ झुका हुआ हो सकता है क्योंकि वोट देते समय उसके सामने यह सोच होगी कि वह केवल एक जनप्रतिनिधि नहीं बल्कि सरकार के भविष्य के बारे में निर्णय कर रहा है और उसे सामने रखकर मतदान करे। इस बार मतदान करते समय उसके सामने 15 साल की पुरानी और लगभग आठ माह की नई भाजपा सरकार की कार्यशैली और तौर-तरीके तथा 15 माह की कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार की कार्यशैली और तौर-तरीके होंगे।
इन दो विकल्पों में से जिसे वह बेहतर समझता है उसके पक्ष में उसका झुकाव हो सकता है। इस कारण पिछले उपचुनाव के रुझान और मानस जैसा ही मतदाता मतदान करे इसकी कोई गारंटी नहीं है। उसके सामने विकल्प काफी सीमित हैं, उसे शिवराज सिंह चौहान और कमलनाथ में से किसी एक को चुनना है और वह किसे पसंद करता है यह मतगणना से ही पता चल सकेगा।
पिछले 15 सालों में प्रदेश में 31 उपचुनाव हुए हैं जबकि इस बार अकेले 27 चुनाव एक साथ हो रहे हैं और हो सकता है चुनाव की घोषणा होने तक इनकी संख्या भी उसी के करीब पहुंच जाएं क्योंकि भाजपा नेताओं का दावा है कि अभी उनके संपर्क में कांग्रेस के कुछ और विधायक हैं। पिछले डेढ़ दशक में 31 उपचुनावों में से भाजपा ने 19 और कांग्रेस ने 11 जीते थे। एक सीट पर समाजवादी पार्टी ने भी जीत दर्ज कराई थी। उस समय सामान्यतः बहुजन समाज पार्टी उपचुनाव नहीं लड़ती थी। इस बार बसपा ने सभी 27 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान कर दिया है तो समाजवादी पार्टी भी उम्मीदवार तलाशने में लगी है, कितनी सीटें लड़ेगी यह तो भी स्पष्ट नहीं है लेकिन वह भी चुनावी मैदान में उतरने का मन बना रही है। मतदाताओं का मानस उपचुनाव जैसा रहेगा या आमचुनाव जैसा इस सवाल का उत्तर भी मतदान के बाद ही मिल सकेगा। लेकिन माहौल विधानसभा चुनाव जैसा ही बनने के आसार नजर आने लगे हैं, क्योंकि प्रदेश के इतिहास में पहली बार इतनी अधिक संख्या में और वह भी दलबदल के कारण चुनाव की नौबत आई है। 15 माह के कांग्रेस के कार्यकाल में दो उपचुनाव हुए और दोनों ही उसकी झोली में गए। छिंदवाड़ा उपचुनाव में तो कमलनाथ खुद उम्मीदवार थे और कांग्रेस ने अपनी सीट बरकरार रखी। झाबुआ में भाजपा अपनी सीट नहीं बचा पाई और उसके विधायक गुमान सिंह डामोर के सांसद बनने पर उपचुनाव में इस सीट पर कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया ने जीत दर्ज की।
और अंत में…………..
ये 27 उपचुनाव राज्य में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार बचाए रखने और दलबदल के कारण खोई कांग्रेस की कमलनाथ सरकार फिर से बनाने के मुद्दे पर हो रहे हैं। इस मामले में भाजपा और कांग्रेस के अपने-अपने दावे हैं। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सांसद विष्णु दत्त शर्मा का मानना है कि कांग्रेस ने झूठ बोल कर सत्ता हासिल की और लोग उसके चरित्र को पहचान गए हैं। मतदाताओं को भाजपा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पर ही भरोसा है। वहीं पूर्व मंत्री कांग्रेस विधायक सज्जन सिंह वर्मा को भरोसा है कि लोगों के मन में बिकाऊ नेताओं के प्रति भारी नाराजगी है और मतदाता उनको सबक सिखा कर फिर से कांग्रेस सरकार बनवाएंगे ।