रायपुर। रायपुर में आयोजित दो दिवसीय अखिल भारतीय जनजातीय लेखक सम्मेलन के दूसरे दिन का आरंभ आलेख पाठ से हुआ जिसका विषय था, विरासत की रक्षा के लिए आदिवासी साहित्य का वैभव। इस सत्र में नर्मदा घाटी के पश्चिमी तट पर फैले भीली क्षेत्र पर आलेख प्रस्तुत करते हुए जितेंद्र बसावा ने कहा, इस क्षेत्र का प्राचीन साहित्य एवं इतिहास में कोई उल्लेख नहीं मिलता। जबकि इनके पास समृद्ध साहित्य मिलते हैं। प्राचीन समय से गाडी पूजा करने की परम्परा थी, अनेक गीत गाए जाते थे, जो पर्व, कृषि, विवाह, प्रेम पर आधारित हैं। धान की फसल की कथा बुजुर्गों के द्वारा बोली जाती है, मृत्यु होने पर भी कहानी सुनने और सुनाने की परम्परा है। इनकी कथाओं में महिला केंद्र में है। जीव जगत, प्रकृति, भूगोल भीली कहानियों के मुख्य विषय हैं। आदिवासी साहित्य में सामुदायिक संबंधों को मजबूती की बात होती, बहनों के प्रति जिम्मेदारी, बुजुर्गों का सम्मान, मानवता के प्रति संवेदना दिखाई देती है।
बी. रघु ने कहा, आदिवासी साहित्य की कोई केन्द्रीय विधा नहीं है। आदिवासी साहित्य में आत्म कथात्मक लेखन, केन्द्रीय स्थान नहीं बना सका, क्योंकि स्वयं आदिवासी समाज “आत्म” में नहीं, समूह में विश्वास करता है। आदिवासी साहित्य आदिवासी आंदोलन की परंपरा और “राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन” में आदिवासियो की भागीदारी से जुड़ी कहानियों को सामने लाता है और बताता है, कि किस प्रकार आदिवासी आंदोलन साम्राज्यवाद के साथ सामंतवाद से भी लड़ने के कारण ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। आदिवासी साहित्य उनकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो उन्हें आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाता है।
मौखिक साहित्य इसका मूलाधार है। “पुरखा साहित्य” आदिवासी समाज में सैकडों वर्षों से जारी मौखिक साहित्य की परंपरा है। आदिवासी जीवन को जानने के लिए पुरखा साहित्य को संकलित करना और सहेजना अत्यंत आवश्यक है। देश में 300 से अधिक आदिवासी भाषाओं में पुरखा साहित्य की परम्परा बिखरी पड़ी है। पुरखौती किसी व्यक्ति या व्यक्तियों की नहीं, पूरे समाज की धरोहर मानी जाती है। आदिवासी साहित्य की एक विशेषता इसकी द्विभाषी प्रस्तुती है। आदिवासी साहित्य की प्रवृत्ति में प्रकृति, जंगल, पहाड़, नदी और पेड़ प्रमुख रूप से आते हैं।
श्रीमती किरण नारूटी ने बस्तर की ज्ञान परंपरा पर कहा, आदिवासी ज्ञान प्रकृति से प्राप्त करते हैं। वे पशु, पक्षी, पेड़, पौधों की भाषा को समझेंगे। जंगलों में रहने वाली पक्षियों की बोली से मौसम की जानकारी मिल जाती है ऐसे ही पशुओं, कीट पतंगों के व्यवहार से प्राकृतिक घटनाओं का पूर्वानुमान हो जाता है। सत्र की अध्यक्षता पी शिवरामकृष्ण ने की।
दूसरे सत्र में कहानियों का पाठ माणिकलाल विश्वकर्मा की अध्यक्षता में आयोजित किया गया l इसमें डॉ. गीता बंजारा बोली में, श्री बी.आर. साहू छत्तीसगढ़ी, श्री विक्रम सोनी हल्बी तथा सुश्री स्वाति आनंद पारधी कहानी-पाठ किया।
बहुभाषीय काव्य-पाठ विषय पर आधारित षष्ठ एवं अंतिम सत्र डॉ. जयप्रकाश मानस की अध्यक्षता में हुईl इसमें श्री धनिराम कडामिया ने बैगानी भाषा, श्रीमती शकुंतला तारारने छत्तीसगढ़ी, सुश्री नीतू कुसुम बिलुंग ने खड़िया, सुश्री प्रिस्का कुजूर ने कुरुख तथा डॉ. महेश्वरी वी. गावित ने वारली भाषा में अपनी कविताओं का पाठ किया l कार्यक्रम के अंत में, साहित्य अकादेमी नई दिल्ली के उप सचिव, डॉ. एन. सुरेश बाबू धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया कार्यक्रम का संचालन श्रीमती जय सिंह ने किया।