0 अजय बोकिल
क्या फेसबुक जैसे विशाल सोशल मीडिया प्लेटफार्म्स भी हेट स्पीच और फेक न्यूज रोकने के मामले में पक्षपाती हैं? ऐसी पोस्ट और फर्जी खबरों से होने वाले सामाजिक नुकसान की तुलना में उसे अपने धंधे और राजस्व की ज्यादा चिंता होती है? ये सवाल उन राजनीतिक आरोप प्रत्यारोपों के बाद उठ रहे हैं, जिसकी शुरूआत खुद अमेरिकी अखबार में छपी एक रिपोर्ट के बाद हुई। इसके बाद भारत में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने फेसबुक पर सीधा आरोप जड़ा कि हेट स्पीच और पोस्ट रोकने में उसका रवैया भेदभाव भरा रहा है। वह भाजपा नेताअोंऔर कार्यकर्ताअोंके हेट स्पीच और नफरत भरी पोस्ट को रोकने के मामले में सख्ती नहीं दिखाती। राहुल ने यह भी कहा कि बीजेपी और आरएसस लोगों को ग़ुमराह करने के लिए फ़ेसबुक और वॉट्सऐप के ज़रिए ‘फ़ेक न्यूज़’ फैला रहे हैं। राहुल के इस आरोप में तिलमिलाई भाजपा और केन्द्र में उसके मंत्री रविशंकर प्रसाद ने गड़े मुर्दे उखाड़ते हुए कांग्रेस को ‘कैंब्रिज एनालिटिका’ मामले की याद दिलाई। उन्होंने यह भी कहा कि जो लूज़र ख़ुद अपनी पार्टी में भी लोगों को प्रभावित नहीं कर सकते वो इस बात का हवाला देते रहते हैं कि पूरी दुनिया को बीजेपी और आरएसएस नियंत्रित करती है।”
यहां उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन की कंपनी कैंब्रिज एनालिटिका पर आरोप थे कि उसने 2016 के अमरीकी राष्ट्रपित के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप को चुनाव जीतने में मदद करने के लिए फ़ेसबुक तक लाखों यूज़र्स का निजी डेटा पहुंचाया था। उसकी भारत में सहयोगी कंपनी ने साल 2010 के बिहार चुनाव में बीजेपी, कांग्रेस और जेडीयू को अपनी सेवाएं दी थीं. कांग्रेस ने इन आरोपों से इनकार किया था। हालांकि फेसबुक ने इस पर सफाई दी िक’हेट स्पीच’ यानी नफ़रत फैलाने वाले भाषण के ख़िलाफ़ उसकी नीति स्वतंत्र है और इसका किसी पार्टी या विचारधारा को लेकर सख़्ती और नरमी का संबंध नहीं है। लेकिन जो बातें सामने आ रही हैं, उसे देखते हुए फेसबुक की सफाई खानापूर्ति ज्यादा लगती है। लेकिन इससे भारत में राजनीतिक बवाल मच गया है और हेट स्पीच और फेक न्यूज के पीछे राजनीतिक षड्यंत्रों और निहित स्वार्थों के पन्ने भी फिर खुलने लगे हैं। पहले हेट स्पीच की बात। हेट स्पीच यानी नफरत या घृणा फैलाने वाला भाषण, बात या लेख। कैम्ब्रिज इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार हेट स्पीच से तात्पर्य ऐसी सार्वजनिक अभिव्यक्ति जो नस्ल, धर्म या लिंग के आधार पर किसी व्यक्ति या समूह के खिलाफ हिंसा करने करने के लिए भड़काए। इसका ताजा उदाहरण हमने बंगलुरू में देखा, जहां भड़काऊ पोस्ट किसी ने डाली और हिंसा का निशाना िकसी और को बनाया गया। उसी तरह गोहत्या और माॅब लिंचिंग मामलों में भी हमने देखा कि एक खास उद्देश्य से भीड़ इकट्ठी कर चंद लोगों को निशाना बनाया गया। ये हेट स्पीच किसी एक समुदाय या व्यक्ति द्वारा नहीं डाली जाती, ये दोनो तरफ से पोस्ट होती हैं। यह काम पहले भी होता था, लेकिन सोशल मीडिया प्लेटफार्मों ने इसे एक संगठित रूप देने का काम किया है।
ताजा बवाल के पीछे जाने माने अमेरिकी अखबार वाॅल स्ट्रीट जनरल में प्रकाशित लेख ‘फेसबुक हेट स्पीच रूल्स कोलाइड विद इंडियन पाॅलिटिक्स’ में दावा किया गया है कि फेसबुक सत्तारूढ़ बीजेपी से जुड़े नेताओं की हेट स्पीच के मामले में नियमों में ढील बरतता है। रिपोर्ट में तेलंगाना से बीजेपी सांसद टी. राजा सिंह की एक पोस्ट का हवाला दिया गया था जिसमें कथित रूप से अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा की वकालत की गई थी। अखबार ने अपनी िरपोर्ट में यह भी कहा कि फेसबुक के एक वरिष्ठ अधिकारी का हवाला देते हुए यह भी कहा कि बीजेपी कार्यकर्ताओं को दिशानिर्देशों के उल्लंघन की सज़ा देने से ‘भारत में फ़ेसबुक के कारोबार का नुक़सान’ होगा।
फिर सवाल उठा कि फेसबुक में यह भाजपा के प्रति साॅफ्ट काॅर्नर रखने वाला अधिकारी कौन है? बीबीसी ने खुलासा किया कि यह अधिकारी और कोई नहीं, फेसबुक भारत और दक्षिण एवं मध्य एशिया में फेसबुक के लिए लोक नीति की निदेशिका अंखी दास हैं। उसके मुताबिक अंखी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ‘नरेन्द्र मोदी डाॅट इन’ नामक व्यक्तिगत वेबसाइट पर ‘रिफ्लेक्शंस सेक्शन’ के काॅन्ट्रीब्यूटर्स काॅलम में लिखती हैं। वे पीएम के ‘नमो एप’ पर भी कांन्ट्रीब्यूटर हैं। हालांकि एप पर अंखी का लिखा तीन साल पुराना एक लेख पड़ा है। वो है- प्रधानंमत्री मोदी और शासन की नई कला। एप पर अंखी का परिचय यह कहकर दिया गया कि अंखी दास के पास टेक्नोलॉजी सेक्टर में लोक नीति और रेगुलेटरी एफेयर्स में 17 साल का अनुभव है। वो भारत में फेसबुक की पब्लिक पॉलिसी प्रमुख हैं। अंखी जेएनयू की पास आउट हैं और अखिल विद्यार्थी परिषद से जुड़ी रही हैं। आरोप यह है कि फ़ेसबुक पर भारत में कुछ ऐसी सामग्रियाँ आईं, जिन्हें नफ़रत फैलाने वाला बताया गया, लेकिन मगर अंखी दास ने उन्हें हटाने का विरोध किया।उधर अंखी का कहना है कि वाॅल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट आने के बाद कई लोगों ने उन्हें जान से मारने की धमकी दी है। इसकी रिपोर्ट अंखी ने पुलिस स्टेशन में कराई है। बीबीसी के मुताबिक अंखी दास ने दो साल पहले इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिखा था- ‘नो प्लेटफार्म फाॅर वायलेंस।‘ अंखी ने लिखा कि “फ़ेसबुक संकल्पबद्ध है कि वो ऐसे लोगों को अपना इस्तेमाल नहीं करने देगा जो कट्टरवाद को बढ़ावा देते हैं। फेसबुक ने इस साल ऐसी 1 लाख 40 हज़ार सामग्रियों को हटा लिया है जिनमें आतंकवाद से जुड़ी बातें थीं। फेसबुक के पास ऐसी निगरानी के लिए विशेषज्ञों की टीम है। लेकिन हेट स्पीच और फेकन्यूज के मामले में फेसबुक का रवैया पूरी तरह निष्पक्ष है, ऐसा नहीं लगता। इसके मूल में सत्ताधारी दल के प्रति झुकाव के साथ फेसबुक का आर्थिक कारोबार भी है। अकेले भारत में फेसबुक के 34.6 करोड़ यूजर हैं। फेसबुक की कुल कमाई का बड़ा हिस्सा भारत से आता है। पिछले साल ही उसने हमसे 892 करोड़ कमाए, जो मुख्य रूप से विज्ञापन के माध्यम से आता है। और कोई सोशल मीडिया प्लेटफार्म सत्तापक्ष से पंगा क्यों लेना चाहेगी ? यहां सवाल यह भी है कि इन हेट स्पीच का असर व्यक्ति समुदाय और समाज पर क्या और किस तरह से होता है? बताया जाता है िक इस बारे में दुनिया भर के मनोवैज्ञानिक, न्यूरोसाइंटिस्ट, भाषाशास्त्री और दार्शनिक ‘भाषाई समझ’ का नया ‘उत्तेजना सिद्धांत’ विकसित कर रहे हैं, जिससे शायद इन सवालों का उत्तर मिल सकें। इसी संदर्भ में हुए ताजा अध्ययन बताते हैं कि नफरत और घृणा से भरी भाषा को पढ़, सुन या देखकर मनुष्य के दिमाग की तंत्रिकाएं कुछ इस तरह उत्तेजित होती है कि व्यक्ति जो पढ़ता-देखता है, उसे तुरंत एक्शन में बदलने पर आमादा हो जाता है। यानी उसका विवेक सो जाता है और दिमाग बदले की कार्रवाई, सबक सिखाने या प्रतिहिंसा के वशीभूत होकर हिंसा, तोड़फोड़, मारकाट और लूट पाट करने लगता है। क्योंकि यह हेट स्पीच और फेक न्यूज के माध्यम से नफरत और भ्रम फैलाना ही नहीं है, बल्कि यह समाज को सीधे-सीधे विभाजित करता है और धर्म, जाति या समुदाय विशेष को मानसिक रूप से प्रताडि़त और भयभीत करता है। हालांकि फेक न्यूज और हेट स्पीच में बहुत सूक्ष्म अंतर है। फेक न्यूज का मकसद भ्रामक और झूठी खबरें देकर समाज को गुमराह या उत्तेजित करना है, जबकि हेट स्पीच का सीधा उद्देश्य व्यक्ति, समुदाय या देश विशेष का अपमान करना, भद्दे ढंग से मजाक उड़ाना है। इसका छिपा या प्रकट उद्देश्य यही होता है कि सामने वाले के अहम को किसी भी रूप में ठेस पहुंचाई जाए, उसे कुचला जाए। ऐसा करके उन्हें एक अजब तरह की आत्मसंतुष्टि मिलती है, जो परपीड़न के सुख से उपजती है। हालांकि फेसबुक, गूगल, व्हाट्सएप जैसी सोशल साइट्स का दावा है कि वो ऐसी हेट स्पीच और पोस्ट बड़े पैमाने पर हटा रहे हैं, लेकिन इसके भी दो पहलू हैं। वो ऐसी हेट स्पीच को ‘घातक’ नहीं मानते, जो उसके आर्थिक हितों को पोसती है। और जब तक ये हटाए जाते हैं, तब उस पोस्ट या स्पीच का छुपा उद्देश्य पूरा हो चुकता है। सभ्य समाज और सौहार्द को तार तार कर चुका होता है। इससे किसी के राजनीति उद्देश्य भले सधते हों, लेकिन देश की आत्मा लहुलुहान हो चुकती है। हकीकत तो यह है कि इस फेसबुक विवाद ने हमे आत्मावलोकन पर भी मजबूर किया है।