आपकी बात: एक देश-एक चुनाव कतई आसान नहीं

0 संजीव वर्मा

हरियाणा और जम्मू कश्मीर में हो रहे विधानसभा चुनावों के बीच एक बार फिर एक देश-एक चुनाव की गतिविधियां शुरू हो गई है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले महीने की शुरुआत में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व वाली उच्च स्तरीय कमेटी की एक देश-एक चुनाव की सिफारिश को मंजूरी दे दी है। लेकिन यह इतना आसान नहीं है जितना समझा जा रहा है। बल्कि इसके अमल में बहुत वैधानिक अड़चनें हैं ।हालांकि केंद्र सरकार ने अब अपनी इस महत्वाकांक्षी योजना को मूर्तरूप देने के लिए संविधान में संशोधन करने की तैयारी शुरू कर दी है। ऐसा कहा जा रहा है कि सरकार इसके लिए संविधान में संशोधन करने वाले दो विधायकों सहित तीन विधेयक लाएगी। प्रस्तावित संविधान संशोधन विधेयकों में से एक स्थानीय निकायों के चुनाव को लोकसभा और विधानसभाओं के साथ करने से संबंधित है। इसके लिए कम से कम 50% राज्यों की सहमति जरूरी है। वहीं, पहला संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करने को लेकर होगा, जबकि तीसरा एक साधारण विधेयक होगा जो विधानसभा वाले केंद्रशासित प्रदेशों जैसे पुडुचेरी, दिल्ली और जम्मू-कश्मीर से संबंधित होगा, जो तीन कानून के प्रावधानों में संशोधन करेगा। ताकि इन सदनों की शर्तों को अन्य विधानसभाओं और लोकसभा के साथ सुनिश्चित किया जा सके। दरअसल 1952 से लेकर 1967 तक लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए गए थे। बाद में विधानसभाएं भंग होने और राष्ट्रपति शासन लागू होने के कारण एक साथ चुनाव होने की व्यवस्था खत्म होने लगी। 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएं विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गई। 1971 में लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की सरकार 1 साल में गिर गई तो फिर चुनाव करने पड़े। 2004 में भी वाजपेई जी ने जल्द इस्तीफा दे दिया तो 5 साल पहले चुनाव करवाने पड़े। ऐसे में कानून बन जाने से लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे, तो समस्याओं का समाधान हो जाएगा। लेकिन इसे लेकर पक्ष-विपक्ष के बीच समन्वय नहीं हो पा रहा है। कुछ दलों का मानना है कि देश की जनसंख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई है, लिहाजा एक साथ चुनाव करा पाना संभव नहीं है। तो दूसरी तरफ यह भी तर्क दिया जा रहा है कि यदि जनसंख्या बढ़ी है तो तकनीक और अन्य संसाधनों का भी विकास हुआ है, इसलिए एक देश-एक चुनाव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यहां यह बताना लाजिमी है कि देश में 28 राज्य और आठ केंद्र शासित प्रदेश हैं। केवल दो केंद्र शासित राज्यों में चुनी हुई सरकार है। इस तरह 30 विधानसभा हैं। इसमें 15 राज्यों में भाजपा की सरकार है। गठबंधन का मुख्यमंत्री है। अन्य राज्यों में कांग्रेस के अलावा क्षेत्रीय दलों का भी वर्चस्व है, जो नहीं चाहते कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हों। उनका अपना तर्क है। वे कहते हैं कि राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएंगे। दरअसल लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव का स्वरूप और मुद्दे बिलकुल अलग होते हैं। लोकसभा में राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों को प्रमुखता दी जाती है, तो विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय महत्व के मुद्दे हावी होते हैं। आज स्थिति यह है कि अनेक राज्यों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु में डीएमके, आंध्रप्रदेश में तेलुगु देशम पार्टी, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी तो उड़ीसा में बीजू जनता दल जैसे दलों की दमदार उपस्थिति है। या तो राज्य में उनकी अपनी सरकार है या फिर प्रमुख विपक्षी दल की महत्वपूर्ण भूमिका में हैं। उत्तर-पूर्व के राज्यों में भी अपनी-अपनी पार्टियां हैं। ऐसे में एक देश-एक चुनाव पर आम सहमति आसान नहीं है। अभी देखा जा रहा है कि मतदाता केंद्र के लिए भाजपा को चुनता है तो राज्य में स्थानीय पार्टी को महत्व देता है। ऐसी संभावना जताई जा रही है कि एक साथ चुनाव होने पर क्षेत्रीय दलों का प्रभाव कम हो जाएगा। यह आरोप विपक्षी दल लगाते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि चुनाव आयोग निष्पक्षता से काम नहीं करता। बहरहाल, एक देश-एक चुनाव में कोई बड़ी खामी नहीं है, लेकिन राजनीतिक पार्टियों द्वारा जिस तरह से इसका विरोध किया जा रहा है उससे लगता है कि इसे लागू कर पाना आसान भी नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत हर समय चुनावी चक्रव्यूह में घिरा हुआ नजर आता है। इस चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिए व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की भी आवश्यकता है। फिलहाल केंद्र सरकार ने एक देश-एक चुनाव के लिए मजबूती के साथ कदम बढ़ाया है। लेकिन इंतजार काफी लंबा है। कई संविधान संशोधनों के साथ लंबी प्रक्रिया से गुजरनी होगी। अब यह देखना होगा कि वह इसमें सफल हो पाती है या नहीं।