आपकी बात: राजनीतिक पंडितों को चौंकाती भाजपा

0 संजीव वर्मा
भारतीय जनता पार्टी ने छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव के लिए आचार संहिता लगने के करीब दो महीने पहले 60 प्रत्याशियों की सूची जारी कर राजनीतिक पंडितों को चौका दिया है। शायद छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश में ऐसा पहली बार हुआ है, जब भाजपा ने ऐसा कदम उठाया है। ऐसा क्यों किया, यह बड़ा सवाल है। छत्तीसगढ़ की  21 और मध्यप्रदेश की 39 सीटों पर प्रत्याशियों का ऐलान किया गया है। जहां तक छत्तीसगढ़ का सवाल है तो भाजपा ने अपनी पहली सूची में 5 महिलाओं को स्थान दिया है। वहीं, 5 पुराने चेहरे के साथ 16 नए चेहरों को मैदान में उतारा है। जातिगत समीकरण को देखें तो अनुसूचित जाति-जनजाति के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग पर भी उसका फोकस रहा है। 21 सीटों में से 11 सीटें अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित है। 10 सीटों पर अनुसूचित जनजाति और 1 सीट पर अनुसूचित जाति तथा एक सामान्य सीट पर आदिवासी चेहरे को मौका दिया है। इस सूची से एक बात साफ है कि इनमें अधिकांश सीट कांग्रेस का गढ़ रहा है। ऐसी कई सीटें है, जहां भाजपा बहुत कम ही जीत पाई है। भाजपा ने पिछली बार जिन्हें टिकट दिया था, लगभग सभी को बदल दिया है। अब सवाल है कि भाजपा ने प्रत्याशी चयन में इतनी जल्दबाजी क्यों की। वह गुटबाजी से बचने के लिए नामांकन के ऐन वक्त पर प्रत्याशियों का ऐलान करती थी। लेकिन इस बार उसने रणनीति में बदलाव किया। हमारा मानना है कि उसने प्रत्याशियों को प्रचार के लिए समय देने और उन्हें अपनी ताकत आजमाने का मौका देने के साथ ही पार्टी के भीतर विरोध को समय रहते संभालने और चुनावी माहौल बनाने के लिए यह निर्णय लिया है। लेकिन इससे उसे कितना लाभ होगा, यह समय बताएगा। बहरहाल, प्रदेश की सबसे हाई प्रोफाइल पाटन विधानसभा सीट में भाजपा ने दुर्ग के सांसद विजय बघेल को टिकट दिया है। अब वे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के खिलाफ ताल ठोकेंगे। यह चौथी बार होगा जब दोनों आमने-सामने होंगे। दरअसल रिश्ते में चाचा-भतीजा होने के कारण मुकाबला बेहद रोचक होने के साथ अहम् हो गया है। माना जा रहा है कि भाजपा ने काफी सोच समझकर ये दांव खेला है। चूंकि पाटन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सीट है। ऐसे में उनके गृह जिले के सांसद को मैदान में उतारकर उन्हें घेरने की रणनीति बनाई है, ताकि वे अपनी सीट में ही उलझ जाएं। हालांकि भूपेश बघेल एक मंजे हुए तेजतर्रार राजनेता हैं। उन्हें ऐसी राजनीति और रणनीति की बेहतर समझ हैं। वे जानते हैं कि ऐसी स्थिति से कैसे निपटना है। भाजपा भले ही दावा करे कि 2008 में जिस तरह से विजय बघेल ने जीत हासिल की है। उसे वे दोहराएंगे। लेकिन उसे समझ जाना चाहिए कि 2008 के भूपेश बघेल और आज के भूपेश बघेल में जमीन-आसमान का फर्क है। मुख्यमंत्री बनने के बाद उनका कद न केवल सरकार में बल्कि संगठन में भी बढ़ा है। आज वे देश के कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों में सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री के रूप में पूरे देश में जाने जाते हैं। ऐसे में विजय बघेल के लिए राह आसान नहीं है। यदि वे सफल होते हैं, तो पार्टी में उनका कद बढ़ जाएगा। यदि नहीं तो आगे क्या होगा, कोई नहीं जानता। वैसे भी भाजपा ने विजय बघेल को घोषणा-पत्र समिति का चेयरमेन बनाकर उनका कद बढ़ाया है। लेकिन यह सिर्फ चुनावी है। अब जनता तय करेगी कि चुनावी मैच में कौन हारेगा-कौन जीतेगा? बहरहाल, भाजपा ने भले ही 21 सीटों पर प्रत्याशी तय कर टॉस जीतने का दावा करे। लेकिन उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वह भूपेश बघेल की गांव-गरीब-किसान के साथ ही जमीन से जुड़े और संस्कृति के संरक्षक की छवि का मुकाबला कैसे करेगी? बीते साढ़े चार सालों में भूपेश बघेल ने आम जनता के बीच अपनी एक अलग छवि बनाई है। जबकि भाजपा के सामने प्रदेश में पार्टी का ऐसा कोई सर्वमान्य चेहरा नजर नहीं आता जिन्हें सामने लाया जा सके। कुल मिलाकर वह सिर्फ मोदी और मोदी के नाम पर ही चुनावी समर में उतरेगी।