वर्कप्लेस दिमाग पर इमोशंस का बोझ

राहुल ऑफिस जाने के विचार से ही परेशान हो जाता है। उसका वहां जाने का बिल्कुल मन नहीं करता। अक्सर वह ‘वर्क फ्रॉम होमÓ के विकल्प को चुनने की कोशिश करता है। उसे लगता है कि घर में वह अपना काम ऑफिस की तुलना में अधिक बेहतर कर पाता है। दूसरी तरफ ऑफिस के माहौल में उसे हर समय एक अजीब किस्म की चिंता, तनाव और असहजता महसूस होती है। उसे लगता है कि ऑफिस में सभी का व्यवहार अजीब है। उसका बॉस सिर्फ उस पर अव्यावहारिक काम का बोझ लादना और मीटिंग में चिल्लाना जानता है और उसके साथ के सहकर्मी आपसी गॉसिपिंग और चुगली करने में ही लगे रहते हैं। सब स्वार्थी हैं, कोई किसी की मदद नहीं करता। इन्हीं सब कारणों से कई बार राहुल कंपनी बदलने की भी सोचता है। लेकिन उसे एक ओर मंदी की वजह से अवसरों की कमी नजर आती है तो दूसरी तरफ बाकी ऑफिसों की स्थिति भी कुछ अलग दिखाई नहीं देती। ऐसे में वह यह सोचने पर मजबूर हो जाता है कि कहीं ऐसा न हो कि उसकी स्थिति आसमान से गिरे और खजूर में अटके वाली हो जाए। आज ऑफिसों में बड़ी संख्या में अधिकारी से लेकर कर्मचारी वर्ग इस मनोदशा से गुजरता हुआ दिखायी देता है। अधिकतर की बातें ऑफिस के खराब माहौल, ऑफिस की राजनीति और कर्मियों के बीच तनातनी के बारे में हो रही होती हैं। जहां पहले ऑफिस कर्मचारियों को एक परिवार की तरह देखा जाता था, वहीं आज ऑफिस कर्मियों के बीच आपस के सुख-दुख की बातें शेयर होना कम हो गया है। प्रतियोगिता, अधिक परिणामों की मांग, काम का बोझ, ऑफिस की लंबी कार्य-अवधि और काम को कम समय में पूरा करने का दबाव कर्मियों में तनाव, झुंझलाहट, गुस्सा और धैर्यहीनता उत्पन्न कर रहा है। अपने अधीनस्थों पर चिल्लाना, अपने सहकर्मियों से हर बात पर बहस करना और अपने वरिष्ठों के हर निर्णय को शक की नजर से देखना कर्मियों का स्वभाव बन रहा है। बाहरी तौर पर देखने में ये बातें बिजनेस परिवेश का हिस्सा नजर आती हैं, पर हकीकत में इन सब समस्याओं की जड़ हमारे खुद की भावात्मक कमजोरी में छुपी होती है। पिछले 30 से 40 सालों में कार्यस्थल पर भावों की भूमिकाओं को लेकर बहुत शोध हुए हैं, जिसमें यह पाया गया है कि पहले जहां एग्जीक्यूटिव्स का इंटेलिजेंस क्वोशंट और तकनीकी जानकारी उनकी सफलता की कुंजी माने जाते थे, वहीं आज इनके सबके साथ इमोशनल इंटेलिजेंस का होना भी जरूरी हो गया है।
द्य राकेश जैन

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