आपकी बात- राजनीतिक दलों का अपना लोकतंत्र

O संजीव वर्मा
देश में इन दिनों दो प्रमुख राजनीतिक पार्टियों भाजपा और कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव की चर्चा है। एक ओर जहां कांग्रेस में 22 साल बाद सर्वोच्च पद के लिए चुनाव की प्रक्रिया जारी है। वहीं, भाजपा में वर्तमान अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के कार्यकाल को बढ़ाए जाने की खबर है। हालांकि नड्डा का कार्यकाल अगले साल जनवरी में खत्म होगा, लेकिन अभी से कयास लगने शुरू हो गए हैं। कांग्रेस ने तो तंज कसना शुरू कर दिया है। उसका कहना है कि लोकतांत्रिक पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा में दो लोगों ने मिलकर नड्डा के कार्यकाल को आगे बढ़ाने का फैसला ले लिया है। क्या यही लोकतंत्र है। हमारा मानना है कि नड्डा के कार्यकाल को अभी चार महीने बाकी है। ऐसे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा। वैसे जो स्थितियां बनती दिख रही है। उसके मुताबिक पिछला इतिहास दोहराए जाने की उम्मीद है। जिस तरह से पिछले लोकसभा चुनाव में अमित शाह का कार्यकाल समाप्त हो गया था, लेकिन वे लोकसभा चुनाव और उसके बाद होने वाले राज्यों के विधानसभा चुनाव तक अध्यक्ष बने थे। उसी तरह इस बार भी लग रहा है कि जे.पी. नड्डा भी राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहेंगे। लेकिन उस समय अमित शाह के अध्यक्ष रहते नड्डा को पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया था। उन्होंने जनवरी 2020 में पूर्णकालिक अध्यक्ष का कार्यभार संभाला था। इस बार ऐसा कोई संकेत नहीं मिल रहा है कि नड्डा के साथ कोई कार्यकारी अध्यक्ष बने। भाजपा के संविधान के मुताबिक पार्टी का कोई भी कार्यकर्ता लगातार दो बार अध्यक्ष रह सकता है। इस नाते नड्डा के फिर से अध्यक्ष बनने के रास्ते में तकनीकी रूप से कोई बाधा नहीं है। ऐसे में उन्हें चुनाव तक विस्तार मिल सकता है या फिर वे तीन साल के लिए एक बार फिर पूर्णकालिक अध्यक्ष बन सकते हैं। वैसे इस मामले में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की राय महत्वपूर्ण होगी। पार्टी के दोनों नेताओं का भी मानना है कि पार्टी में जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है तो फिर प्रयोग करने की जरूरत नहीं है। वैसे नड्डा की चाहत क्या है, यह भी महत्वपूर्ण है। बीच-बीच में ऐसी खबरें मिलती रही है कि उन्हें हिमाचल का मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। चूंकि अगले महीने नवंबर में वहां विधानसभा के चुनाव होने हैं। यदि भाजपा जीतती है और नड्डा मुख्यमंत्री नहीं बनते हैं तो उनका विस्तार तय है। इस बीच, केंद्रीय मंत्रियों धर्मेन्द्र प्रधान और भूपेंदर यादव के भी अध्यक्ष बनने की संभावना जताई जा रही है। लेकिन यह सिर्फ कयासों पर आधारित है। असल में पार्टी में क्या कुछ तय होगा यह बहुत कुछ आरएसएस पर भी निर्भर है और आरएसएस के निर्णय हमेशा चौंकाने वाले होते हैं। ऐसे में फिलहाल ‘वेट एंड वॉच’ की स्थिति बन रही है। दूसरी ओर, कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्ष पद को लेकर धमाल मचा हुआ है। गांधी परिवार के अघोषित समर्थन से जहां मल्लिकार्जुन खड़गे मैदान में हैं, तो वहीं कांग्रेस के बागी गुट जी-23 के नेता माने जाने वाले शशि थरूर भी ताल ठोंक रहे हैं। अब 8 अक्टूबर को नामांकन वापसी के आखिरी दिन तय होगा कि मुकाबला होगा भी या नहीं। यदि दोनों प्रत्याशियों में से कोई भी नाम वापसी नहीं लेंगे तो मुकाबला खड़गे और थरूर के बीच ही होगा। इस चुनाव में यह सवाल भी उभर रहा है कि क्या कांग्रेस में बागी गुट जी-23 का अस्तित्व खत्म हो चुका है। इसके पीछे कुछ अहम वजह भी है। चूंकि नामांकन के समय जी-23 गुट के नेताओं आनंद शर्मा, हूड्डा और मनीष तिवारी का थरूर के बजाए खड़गे के साथ आना जाहिर करता है कि जी-गुट में भी एका नहीं है। ऐसे में कांग्रेस में बदलाव की मांग के साथ चुनावी मैदान में उतरे शशि थरूर अकेले पड़ गए लगते हैं। थरूर साफ कह रहे हैं कि जिसे पुरानी कांग्रेस चाहिए वो खड़गे के साथ जाए और जिसे बदलाव चाहिए मेरे साथ आए। लेकिन जी-23 के उनके पुराने साथी ही उनके साथ नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसे में थरूर की मुश्किलें बढ़ सकती है। बहरहाल, कांग्रेस में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत सर्वोच्च पद के लिए चुनाव अच्छा संकेत है। पार्टी को इस बार गैर गांधी परिवार से अध्यक्ष मिलेगा। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि नए अध्यक्ष कांग्रेस को अपनी पुरानी हैसियत दिला पाएंगे या नहीं। हालांकि उनके सामने  कठिन चुनौती है, लेकिन कहते हैं -कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती…..।