0 गिरीश उपाध्याय
हाल ही में एक न्यूज चैनल में एक अलग विषय पर चर्चा करने का मौका मिला, ऐसे विषय आज के चीख पुकार और गलाफाड़ू संस्कृति वाले मीडिया में अब अपेक्षित नहीं होते। विषय था- ‘’परंपरा जो तोड़ी न जाए…’’ और इसका संदर्भ था मध्यप्रदेश विधानसभा के बजट सत्र का पहला दिन, जहां विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव हुआ और साथ ही पक्ष-विपक्ष के नेताओं के बीच सौहार्द और सद्भाव के कुछ ऐसे दृश्य देखने को मिले जो संसदीय सौधों में अब दुर्लभ हो चले हैं।
चैनल के इसी कार्यक्रम में विधानसभा के नए अध्यक्ष श्री गिरीश गौतम की एक टिप्पणी भी सुनी, जिसमें उन्होंने कहा कि वे चाहते हैं कि ‘’सदन में वाद विवाद कम हो संवाद ज्यादा हो। वाद विवाद में दोनों बोलते हैं, समझ में किसी के नहीं आता। संवाद में एक बोलता है, दूसरा सुनता है और दूसरा बोलता है तो पहले वाला सुनता है। फिर उसका जो निष्कर्ष निकलता है उसका फल पूरे प्रदेश को मिलता है।‘’
विधानसभा अध्यक्ष के इस कथन पर बात करने से पहले सदन के ही एक और प्रसंग पर बात। दरअसल बजट सत्र का पहला दिन शुरू होने से एक दिन पहले ही इंदौर में पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ एक ‘लिफ्ट’ दुर्घटना का शिकार हो गए थे। उस घटना के बाद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने खुद उनके घर जाकर उनका हालचाल जाना और मामले की जांच के आदेश भी दिए।
दूसरी तरफ सदन की कार्यवाही में भाग लेने पहुंचे कमलनाथ ने कहा कि, हालांकि इंदौर की दुर्घटना के बाद मैं सदन में आ नहीं रहा था लेकिन अध्यक्ष के चुनाव के दौरान नेता प्रतिपक्ष के सदन में रहने की परपंरा का निर्वाह करते हुए मैं यहां उपस्थित हुआ हूं। कमलनाथ ने अध्यक्ष के निर्विरोध निर्वाचन में अपने दल की ओर से सहयोग करते हुए निवर्तमान प्रोटेम स्पीकर रामेश्वर शर्मा से मुलाकात कर उन्हें भी शुभकामनाएं दीं। उधर मुख्यमंत्री ने सदन में भी इस बात पर संतोष व्यक्त किया कि इंदौर के हादसे के बाद नेता प्रतिपक्ष सुरक्षित और स्वस्थ हैं।
दरअसल संसदीय सदनों में इस तरह के दृश्य अब आम नहीं रहे हैं। एक समय था जब सदन में राजनीतिक विरोध के बावजूद आपसी सद्भाव और सौहार्द को आंच नहीं आने दी जाती थी, लेकिन अब वे परंपराएं लगभग टूट गई हैं। ऐसे में जब उन पुरानी परंपराओं को हरा करने वाले दृश्य दिखाई देते हैं तो यह भरोसा बंधता है कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बावजूद हमारे भीतर इंसान होने का जो रस है वह सूखा नहीं है। राजनीति की आग ने उसे जलाकर राख नहीं किया है।
पिछले दिनों सौहार्द का ऐसा ही प्रसंग राज्यसभा में भी देखने को मिला था जब विपक्ष के नेता और वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद गुलाम नबी आजाद का कार्यकाल समाप्त होने पर सदन से उनकी विदाई के समय कई पुरानी बातों को याद करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और खुद गुलाम नबी आजाद की आंखों से आंसू बह चले थे। दोनों ने एक दूसरे को जिस आत्मीयता से संबोधित किया था, वैसे दृश्य अब संसद में दिखाई नहीं देते। वहां चारों तरफ तेजाबी कड़वाहट ही फैली दिखाई देती है।
हालत यह हो गई है कि सद्भाव और सौहार्द की बात तो छोडि़ये, हम संसदीय सदनों में आंसुओं और मुसकुराहट को भी राजनीतिक चश्मे से ही देखने लगे हैं। संसद में गुलाम नबी आजाद की विदाई के दौरान जो हुआ उसे लेकर भी मीडिया और खासतौर से सोशल मीडिया में बहुत बेशर्मी के साथ ये टिप्पणियां की गईं कि ये दिखावटी या घडि़याली आंसू हैं। मोदी और आजाद के आंसुओं में भी राजनीति को खोजा गया। समाज का यह रुख अच्छा नहीं है। ठीक है कि राजनीति का चरित्र अजीब होता है, वहां जो दिखता है, हमेशा वह वैसा हो भी, यह जरूरी नहीं होता। लेकिन यदि मान भी लें कि ऐसी भावुकता राजनीति का ही एक हिस्सा है तो भी क्या हम नहीं चाहेंगे कि खंजर और खून की राजनीति से तो आंसू और मुसकुराहट की राजनीति भली।
दूसरी बात जैसी कि मध्यप्रदेश विधानसभा के नवनिर्वाचित अध्यक्ष ने कही, संसदीय और विधायी सदनों में संवाद की है। अब इन सदनों में संवाद की गुंजाइश लगभग खत्म ही होती जा रही है। यदि श्री गिरीश गौतम सचमुच मध्यप्रदेश विधानसभा के सदन में स्वस्थ संवाद की परंपरा को पुनर्जीवित कर पाएं तो वे एक नया इतिहास लिखेंगे। वरना आजकल सदन में सिवाय अपनी बात कहने, और कहने की छोडिये चीखने-चिल्लाने पर ही जोर होता है।
सदन अब सुनने का नहीं सिर्फ कहने और चिल्लाने का स्थान भर रह गए हैं। संवाद का अर्थ ही है कहना और सुनना। यदि सारे लोग कहने पर ही आमादा हों, कोई सुनने की कोशिश भी न करे या दूसरे को सुनना ही न चाहे तो फिर संवाद हो ही नहीं सकता। इसलिए जरूरी है कि सदनों में कहने के साथ-साथ सुनने की भी स्वस्थ परंपरा डाली जाए। और इसमें सत्ता पक्ष एवं प्रतिपक्ष दोनों की जिम्मेदारी समान है। सत्ता पक्ष के लिए तो सुनना ज्यादा जरूरी है। उसी तरह विपक्ष को भी चाहिए कि उसने यदि कोई मुद्दा उठाया है तो उस पर सरकार या सत्ता पक्ष का जवाब भी वह सुने। यह गलत है कि आपने तो अपनी बात कहते हुए सारे आरोप लगा दिए और जब उनके जवाब की बारी आई तो आप बहिर्गमन करते हुए सदन से उठकर चले गए।
बहिर्गमन करना सदस्य का अधिकार हो सकता है लेकिन मैं उसे सदन के अपमान के रूप में देखता हूं। बगैर एक दूसरे की बात सुने, बगैर संवाद कायम किए, उठकर चले जाना सामान्य शिष्टाचार के भी प्रतिकूल माना जाता है तो फिर लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले संसदीय सदनों में इस तरह के आचरण को कैसे स्वीकार किया जा सकता है। होना तो यह चाहिए कि अव्वल तो सत्ता पक्ष खुद प्रतिपक्ष की बात को महत्व देते हुए उसे सुने और यदि सत्ता पक्ष ऐसा नहीं करता तो प्रतिपक्ष को सदन से उठकर चले जाने के बजाय सदन में रहकर ही अपनी बात लगातार कहनी चाहिए।
संसदीय सदनों में संवाद की स्थिति निर्मित करने में आसंदी की बहुत अहम भूमिका होती है। संवाद हो सके और सदस्यों की बात सुनी जा सके इस तरह की स्थिति निर्मित करने में आसंदी को भी प्रभावी भूमिका निभानी होगी। ऐसा न होने पर सदनों में संवाद की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कोरोना महामारी के बाद हो रहा मध्यप्रदेश विधानसभा का यह बजट सत्र अपनी बैलेंस शीट में आय और व्यय के साथ ही कहने और सुनने के कॉलम पर भी ध्यान देगा।