गैरवाजिब ‘सत्ता-संघर्ष’ में उभरे ‘लोकतांत्रिक-सवालों’ का निदान जरूरी…

0 उमेश त्रिवेदी

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच खिंची तलवारें म्यान में लौट जाने के बाद राजस्थान में सत्ता परिवर्तन के भाजपाई मंसूबें फिलहाल ध्वस्त हो चुके हैं। मोदी सरकार के  हमलों के मुकाबले अशोक गहलोत अपनी सरकार को बचाने में कामयाब रहे हैं। यह आकलन कठिन है कि अशोक गहलोत को कितनी मोहलत मिली है अथवा इसके बाद मोदी सरकार कब गहलोत सरकार पर पलटवार करेगी? लेकिन राज्यों के सत्ता-सरोवर में अठारहवां कमल खिलाने में असफल भाजपा के चेहरे पर खीज और खिसियाहट के लक्षण साफ नजर आ रहे हैं। देश के 17 राज्यों में भाजपा या उसकी गठबंधन सरकारें कार्यशील हैं। केन्द्र सरकार ने गहलोत सरकार को उलटने की तमाम जायज-नाजायज कोशिशें कीं, जो कामयाब नहीं हो सकीं। सत्ता-पलट के सच्चे-झूठे प्रसंग अर्से तक राजनीतिक बतोलेबाजी का सबब बनकर लोगों के जहन को कुरेदते रहेंगे। यह मान लेना मुनासिब नहीं होगा कि राजनीतिक-समर में इतना आगे बढ़ जाने के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह आसानी से वापसी करेंगे। भाजपा को अमित शाह में चाणक्य नजर आता है और चाणक्य की कूट-नीति शांत बैठने वाली नहीं है। फिलवक्त राजस्थान का राजनीतिक भविष्य अनिश्चितता की लहरों में हिचकोले भरता रहेगा। अटकलों का बाजार सहजता से ठंडा होने वाला नहीं है।

लेकिन, मसला सिर्फ राजस्थान में  सत्ता पलटने तक ही सीमित नही हैं। ये हरकतें देश में लोकतंत्र की संजीदगी को लेकर सवाल उठाती हैं। कर्नाटक और मध्य प्रदेश के बाद तीसरे राज्य में भी विपक्षी सरकार को उलटने के मंसूबे लोकतंत्र और संविधान के नैतिक तकाजों को नोंचने का अनैतिक उपक्रम है। इन प्रयासों से आहत संविधान के प्रावधानों में खून रिसने लगता है। राजस्थान में गहलोत सरकार के गिराने की कोशिशें अपने पीछे सवालों की लंबी श्रृंखला छोड़ती आगे बढ़ती हैं। इन घटनाओं के साथ मूल सवाल यह जुड़ा है कि क्या देश में लोकतंत्र की तकदीर तानाशाही प्रवृत्तियों की स्याही से लिखी जाएगी…? राजनीति की चाल, चरित्र और चेहरा कैसा होगा…? एक के बाद एक वैध तरीकों से निर्वाचित सरकारों को गिराने का यह चलन क्या देश के लोकतंत्र के लिए प्राणघातक साबित नहीं होगा…? सत्ता परिवर्तन में दल-बदल कानून के दुरूपयोग के सवाल भी फिर जिंदा हो रहे हैं…? भाजपा ने दल-बदल कानून के प्रावधानो का जिन तरीकों से इस्तेमाल करना शुरू किया है, उसने राजनीति में  धन-बल का प्रभुत्व कायम हो रहा है…? यह विचार करना भी जरूरी है कि एक नीतिवान लोकतंत्र में केन्द्र और राज्य-सरकारों की भूमिका क्या हो और राजनीतिक दलों की मर्यादाओं का निर्धारण कैसे हो…?

लोकतंत्र और संविधान से इतर कुछ सवाल कांग्रेस और भाजपा के राजनीतिक-तटबंधो से भी टकरा रहे हैं। खुद को ‘ए पार्टी विद डिफरेंस’ की शब्दांजलि और भावांजलि के साथ प्रस्तुत और परिभाषित करने वाली भाजपा सत्ता के नशे में गाफिल होती महसूस हो रही है। सत्ता परिवर्तन के खेल में भाजपा कांग्रेस के स्याह इतिहास को पीछे छोड़ती नजर आ रही है। सत्ता परिवर्तन के खेल में सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स विभाग की सक्रियता, न्यायालयों का हस्तक्षेप, स्पीकरों के अधिकारों का अतिक्रमण और राज्यपालों का खुलेआम दुरूपयोग चौंकाने वाला है। राजस्थान में असफल भाजपा क्या भविष्य में सत्ता परिवर्तन के औचित्य और आवश्यकताओं पर गौर करेगी? भाजपा एक सर्वमान्य और सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री की राजनीतिक-थाती और नेतृत्व की मालिक है। उसके सामने मौजूद राजनीतिक चुनौतियों का आकार काफी बौना है। इस परिप्रेक्ष्य में राज्य-सरकारों को विस्थापित करने की राजनीतिक-पिपासा लोकतंत्र को लहूलुहान करती प्रतीत होती है। क्या भाजपा राजनीति में पक्ष-विपक्ष की सरकारों को उनके संवैधानिक और लोकतांत्रिक अधिकारों के दायरों में निर्विघ्न चलते रहने देने की नीति का पालन करने पर विचार करेगी…?

यह घटनाक्रम कांग्रेस की राजनीतिक बेचारगी को भी उजागर करता है। पार्टी की कार्यशैली की कमजोरियों को जाहिर करने वाली यह घटना पार्टी में आपसी विश्वास और संवाद की कमी को बयां  करती है। कांग्रेस ने भले ही राजस्थान में अपनी सरकार बचा ली हो, लेकिन कटुता के अध्याय अभी खत्म नही हुए हैं। कांग्रेस की नई और पुरानी पीढ़ी में दुराव और दुर्भावना के प्रसंगों को अतीत का हिस्सा बनाकर आगे बढ़ने का मंत्र फूंकना आसान नहीं हैं। पार्टी नेतृत्व को लेकर व्याप्त अनिश्चितता कार्यकर्ताओं को भ्रमित कर रही है। क्या राहुल गांधी मानसिक रूप से पार्टी को लीड करने के लिए तैयार हैं ? यदि वो तैयार हैं, तो उनकी राजनीतिक-सल्तनत में पुराने चेहरों का वजूद और हैसियत क्या होगी? कांग्रेस हलको में यह सवाल इसलिए भी तिलमिला रहा है कि पार्टी में नए खून को मौका देने के नाम पर राहुल गांधी ने जितने भी चेहरे चुने थे, वो कांग्रेस को पीठ दिखाकर उनका साथ छोड़ चुके हैं। यदि कांग्रेस में राहुल गांधी को आगे बढ़ना है तो नई और पुरानी पीढ़ी का ऐसा मिक्स तैयार करना होगा, जो कारगर सिद्ध हो।

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