आपकी बात: राष्ट्रपति चुनाव के सियासी मायने

O संजीव वर्मा 
आजादी के 75 साल बाद पहली बार देश को आदिवासी राष्ट्रपति मिला है। ओडिशा की द्रौपदी मुर्मू ने यशवंत सिन्हा को हराकर इतिहास रच दिया। देश में अब तक कोई भी आदिवासी न तो प्रधानमंत्री और न ही राष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंचा था। हालांकि देश को के.आर.नारायणन और रामनाथ कोविंद के रूप में दो दलित राष्ट्रपति मिल चुके हैं। द्रौपदी मुर्मू के नाम सबसे युवा राष्ट्रपति बनने का खिताब भी जुड़ गया। अभी तक देश में सबसे कम उम्र में राष्ट्रपति बनने का रिकॉर्ड नीलम संजीव रेड्डी के नाम हैं, जो 1977 में निर्विरोध राष्ट्रपति बने थे। राष्ट्रपति पद संभालते वक्त रेड्डी की उम्र 64 साल दो महीने और 6 दिन थी। वहीं, मुर्मू की उम्र 25 जुलाई 2022 को पद संभालने के समय 64 साल एक महीना और 8 दिन है। उनका जन्म 20 जून 1958 को हुआ था। देश में ऐसा पहली बार हुआ, जब राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज लोगों का जन्म आजाद भारत में हुआ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जन्म 17 सितंबर 1950 को वडनगर गुजरात में हुआ था। देश में यह भी पहली बार ही हुआ कि कोई पार्षद रह चुका व्यक्ति भारत में राष्ट्रपति पद तक पहुंचा। द्रौपदी 1997 में ओडिशा के रायरंगपुर नगर पंचायत का पार्षद बनने के साथ ही अपने राजनैतिक कैरियर की शुरुआत की थी। 2000 में वह पहली बार विधायक बनी। उन्होंने ओडिशा की बीजद-भाजपा सरकार में दो बार मंत्री पद भी संभाला। बाद में झारखंड की राज्यपाल बनीं। बहरहाल, एक बेहद सौम्य, सरल और विदुषी महिला राष्ट्रपति के पद पर विराजमान हो गई हैं। ऐसे में उम्मीद बंधी है कि अब देश की महिलाओं के साथ-साथ आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा हो सकेगी। शायद यही वजह है कि उन्हें एनडीए के बाहर के भी मत बड़ी संख्या में मिले हैं। वैसे भाजपा ने सोच-समझकर श्रीमती मुर्मू को उम्मीदवार बनाया था। उनके निशाने पर केवल राष्ट्रपति का ही पद नहीं बल्कि राजनैतिक लाभ भी थे, जिनमें वे सफल रहे। आगे भी उसे उम्मीद है कि इसका सियासी फायदा मिलेगा। देश में 8.9 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के मतदाता हैं। कई राज्यों की कई सीटों पर आदिवासी मतदाता निर्णायक भूमिका में होते हैं। ऐसे में भाजपा ने द्रौपदी को राष्ट्रपति भवन तक पहुंचाकर आदिवासी मतदाताओं को अपनी ओर करने की कोशिश की है। वैसे पिछले राष्ट्रपति चुनाव में जब दलित समाज से रामनाथ कोविंद को भाजपा ने उम्मीदवार बनवाया था। इसके बाद दलित मतदाताओं का रूझान भाजपा की ओर बढ़ा था। 2014 के मुकाबले 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की थी। हाल ही में संपन्न उत्तरप्रदेश चुनाव के आंकड़े भी सामने है। जब बहुजन समाज पार्टी के कोर वोटर्स भाजपा में शिफ्ट हुए। फिलहाल अभी विधानसभा और लोकसभा के चुनाव दूर हैं। लेकिन अभी से ही सियासी जोड़-तोड़ शुरु हो गया है। डेढ़ सालों के अंदर देश के 5 राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, जिनमें छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, गुजरात, झारखंड, राजस्थान शामिल हैं। पिछले चुनावों में भाजपा को यहां तगड़ा झटका लगा था। छत्तीसगढ़ में तो आदिवासी बहुल क्षेत्र बस्तर से सूपड़ा ही साफ हो गया था। राज्य की 29 विधानसभा और 4 लोकसभा सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि राज्य की सत्ता इन्हीं क्षेत्रों से होकर गुजरती है। वैसे आने वाले 3 सालों के भीतर 9 राज्यों के विधानसभा सहित लोकसभा के भी चुनाव होने हैं। लोकसभा की 47 और विधानसभा की 487 सीटें अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं। ऐसे में भाजपा इस वर्ग को अपने साथ करने के साथ-साथ महिला वर्ग को भी साधने की कोशिश की है। द्रौपदी मुर्मू दूसरी महिला राष्ट्रपति हैं। भारत में महिलाओं की आबादी पुरुषों के बराबर है। द्रौपदी के राष्ट्रपति बनने से महिलाओं के बीच एक सकारात्मक संदेश गया है। ऐसे में भाजपा को महिला मतदाताओं में अपनी पकड़ को और मजबूत बनाने में मदद मिल सकती है। बहरहाल, राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष बिखरा-बिखरा रहा। इसका मतलब साफ है। विपक्षी एकता की कवायद धरी की धरी रह गई। ऐसे में 2024 में लोकसभा चुनाव के लिए विपक्ष की एकता की राह बेहद पथरीली है। कांग्रेस अपने सिकुड़े जनाधार की चुनौती से उबरने की राह तलाशने के साथ क्षेत्रीय दलों को साधे रहने की दोहरे चुनौती से जूझ रही है, वहीं, ममता बनर्जी से लेकर अखिलेश यादव तक अपने-अपने राज्यों में सियासी वर्चस्व के चलते एक सीमा से अधिक कांग्रेस के साथ जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते। ऐसे में संकेत साफ है। हम तो यही कह सकते हैं।
समझने ही नहीं देती, सियासत हमको सच्चाई।
कभी चेहरा नहीं मिलता, कभी दर्पण नहीं मिलता।।